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धर्म का स्वरूप और सर्वधर्म - समन्वय
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पर टिकी हुई है । वर्णाश्रम व्यवस्था भी अधिकारी-भेद के कारण ही है, अतः उनके धर्मों की गणना भी विशेष धर्मों में होती है । व्यक्ति के अपने संस्कारों के अनुरूप हो उसे पूजा-पद्धति रुचती है । कुछ लोग स्वभाव से शाक्त हैं तथा दूसरे वैष्णव । कुछ लोग संस्कार से ज्ञानमार्गी तथा कुछ संस्कार से ही भक्ति या कर्मकाण्डी होते हैं । इस संस्कारों के अनुरूप विशेष धर्मों का पालन मानव में सामान्य धर्मों की प्रतिष्ठा कर सकता है, उसे सत्य पर ला सकता है । इसी प्रकार कुछ लोगों के संस्कार जैन धर्म के अनुरूप तथा कुछ के बौद्ध धर्म के अनुरूप हैं । अतः सहज रूप में तो सब अपने-अपने स्थानों पर ठीक हैं। विद्वान् उनमें बुद्धिभेद नहीं उत्पन्न करता अपितु उनको अपने धर्म की प्रेरणा देता है । यह संस्कार और अधिकारीभेद पर टिका हुआ विशेष धर्म ही 'स्वधर्म' है । इस स्वधर्म का पालन ही वस्तुतः मानव को अभ्युदय और निःश्रेयस की सिद्धि देता है | अतः धर्म-परिवर्तन जैसी कोई वस्तु पारमार्थिक रूप से सत्य नहीं । धर्म परिवर्तन केवल सम्प्रदायों के बिम्बों का परिवर्तन मात्र है । इससे केवल व्यक्ति के ऊपरी लक्षण पर धारण किये जाने वाले उपकरण जैसे आदि बदल जाते हैं, व्यक्ति का अन्तःकरण नहीं बदलता । जो एक प्रकार की उपासना के संस्कार को लेकर व्यक्ति आया है, वह जब तक उस प्रकार की उपासना के संस्कारों का पूर्णतया क्षय करके दूसरी प्रकार की उपासना की अर्हता पैदा नहीं कर लेता, तब तक वह दूसरी उपासना पद्धति को नहीं अपना सकता है । वह धर्म नहीं बदलता । दूसरी उपासना पद्धति को अपनाना अन्तर् की प्रेरणा पर आधारित है । बाहर के उपदेश, प्रलोभन अथवा भय से परिवर्तित धर्म केवल ढोंग और अशान्ति के हेतु हैं । विश्व के सारे साम्प्रदायिक झगड़े ऐसे ही कारणों से हुए हैं। भारतीय धर्म इसी उदार एवं विशाल दृष्टिकोण पर टिका हुआ है, सर्वधर्म - समन्वय की यही मूल आधार भित्ति बन सकती है ।
अर्थात् वस्त्र, या शरीर यज्ञोपवीत, तिलक, कास
आज सम्पूर्ण विश्व के उदार नेता धर्मावलम्बियों तथा धर्माचार्यों में सर्वधर्म समन्वय की एक आकांक्षा विद्यमान है । यह धर्म के क्षेत्र में एक शुभ चिह्न है, जिससे विश्व में मानवता के प्रसार और 3. न बुद्धिभेदं जनयेत् अज्ञानां कर्मसंगिनाम् जीवयेत् सर्वकर्माणि विद्वान् युक्त समाचरन्
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