SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 158
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ - धर्म का स्वरूप और सर्वधर्म - समन्वय १४५ ज्ञान ही प्रमाण है । इसी से धर्म श्रुत्यैकसमधिगम्य है । इस प्रकार के अन्तर्विरोधों को दूर करने के लिए ही समष्टि कल्याण अर्थात् प्रत्येक के कल्याणरूपी निःश्रेयस को कसौटीरूप मानना पड़ता है । जिस कार्य में समष्टि का कल्याण निहित है और जो निःश्रेयस को देने वाला है, वह कार्य अधर्म नहीं होता, चाहे वह आपातत: कुछ के लिए दुःखप्रद प्रतीत हो सकता है। डाक्टर की शल्यक्रिया बीमार को स्पष्टतः कष्ट देती है, पर वह धर्म है, क्योंकि उसमें बीमार का डाक्टर का सबका कल्याण निहित है । जो अनुभूतिकाल में सुखकर है, वह केवल प्रेय है, पर जो परिणाम में सुखकर है, वही श्रेय है । श्रेय के लिए प्रेय का समर्थन अथवा श्रेय को ही प्रेय बना देना, वस्तुतः धर्म की उच्चतम भूमि है । मोक्ष की ओर ले जाने वाला अर्थ और काम ही वस्तुतः धर्म है । या यों कहें कि धर्मानुकूल अर्थ और काम ही मोक्ष के हेतु हैं । धर्मानुकूल अर्थ और काम का सेवन ही व्यक्ति में अर्थ और काम की वासना को भोग के द्वारा नष्ट करता है और वासनारहित अन्तःकरण में ज्ञान उत्पन्न करता है । यह ज्ञान ही मोक्ष का हेतु है । इस प्रकार चार पुरुषार्थों में धर्म प्रथम है । और मोक्ष अंतिम अर्थात् धर्म से प्रारम्भ करके धर्म में ही रहता हुआ व्यक्ति धर्मानुकूल अर्थ का उपार्जन करे और धर्मोपार्जित अर्थ से धर्मानुकूल काम का सेवन करे, यही मानव का धर्म है । इस धर्म में प्रतिष्ठित रहकर व्यक्ति अभ्युदय और मोक्ष को प्राप्त होता है । 'मोक्ष' भारतीय दृष्टि से जीवन का परम लक्ष्य है । इस प्रकार पुरुषार्थ चतुष्टय में समन्वय है । यही अभ्युदय और निःश्रेयस का समन्वय है । यही धर्म है । 'अभ्युदय' 'निःश्रेयस' के लिए ही है । निःश्रेयस विरोधी अभ्युदय त्याज्य है । व्यक्ति के स्तर पर उच्चतम अवस्था मोक्ष है. सभी धर्म उसी के लिए हैं । मोक्षप्राप्ति अंगीधर्म है और शेष सब अङ्ग धर्म हैं । अङ्ग अङ्गी के लिए छोड़े जा सकते हैं‘आत्मार्थी पृथ्वीं त्यजेत्' । पर धर्मानुकूल अभ्युदय की साधना हमेशा निःश्रेयस या मोक्ष का हेतु ही होती है । इस दृष्टि से अङ्ग और अङ्गी का अन्तर्विरोध वस्तुतः होता नहीं, केवल आपाततः प्रतीत भर होता है । साक्षात्कृतधर्मा ही इस अविरुद्ध स्थिति को समझता है, अतः उसी का आप्तवाक्य धर्म के लिए प्रमाण है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003192
Book TitleShraman Sanskruti Siddhant aur Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalakumar
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1971
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy