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धर्म का स्वरूप और सर्वधर्म समन्वय
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रिपक्व अवस्था में ही निवृत्ति मार्ग को अपना लेता है, तब भी वह 'धर्म' के मार्ग से हट जाता है, क्योंकि वस्तुतः जब तक सांसारिक अभ्युदय का कोई भी अंश शेष रह जाता है, तब तक व्यक्ति मूलत: अभ्युदय का मार्ग छोड़ नहीं सकता । उस अवस्था में वह 'निःश्रेयस' का मार्ग पूर्णतः अपना भी नहीं पाता है । अपनाने का केवल ढोंग करता है । यह केवल जीवन की विडम्बना है । उसमें सांसारिक अभ्युदय की वासना बनी ही रहती है । वह जबरदस्ती उस वासना को कुचलने की चेष्टा में संसार को छोड़ने का ढोंग अवश्य कर सकता है, और करता भो है । पर उस वासना के समाप्त होने से पूर्व मन से कभी संसार छूटता ही नहीं । भोजनादि के छोड़ने से शरीर कृश अवश्य हो जाता है, पर विषयों की तृष्णा नहीं जाती । विषयों का रस बना रहता है । वह तो परम तत्त्व के साक्षात्कार से अर्थात् वास्तविक ज्ञान और वैराग्य की प्राप्ति से हो जाता है ।
"विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः । रस वजं रसोध्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते ॥ " प्रवृत्तिमात्र से सचमुच वैराग्य हुए बिना पूर्ण निवृत्तिमार्ग नहीं अपनाया जा सकता । उससे पूर्व उसे पूर्णतः अपना लेने का प्रयास एवं अहंकार केवल ढोंग मात्र है । वासना के सब रूपों का भोग एवं ज्ञानन-वैराग्य से क्षय किये बिना जीव निवृत्ति मार्ग या मोक्ष मार्ग को वस्तुतः अपना ही नहीं पाता है । प्रकृति जीव को सब वासनाओं और भोगों के चक्कर में घुमा कर ही उनसे छुटकारा दिलाती है । यही जीव चौरासी लाख योनियों में भटकता है । वासनाओं का धर्मानुकूल साधनों एवं प्रक्रियाओं में भोग उन वासनाओं से मुक्ति का हेतु है । तभी व्यक्ति मोक्ष मार्ग पर अवस्थित हो सकता है ।
सम्पूर्ण सांसारिक अभ्युदय और सुखोपभोग का अन्तर्भाव 'अर्थ' और 'काम' में है । संसार में व्यक्ति धन, सम्पत्ति, राज्य, सम्मान आदि जो भी कुछ प्राप्त करना चाहता है, वह सब अर्थ है और उनसे मिलने वाले सारे सुख 'काम' हैं । अतः 'अर्थ' और 'काम' की प्राप्ति ही सांसारिक अभ्युदय की सिद्धि है । 'ज्ञान' और वह भी केवल 'स्वरूप ज्ञान' के अतिरिक्त संसार की सभी चीजें अर्थात् अर्थ और काम भी सारा जगत् सम्मिलित प्रयास से प्राप्य वस्तु है ।
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