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श्रमण संस्कृति : सिद्धान्त और साधना
लिए नहीं करता । आहार उसके स्थूल शरीर की पुष्टि मात्र का साधन नहीं, अपितु वह उसके सूक्ष्म शरीर के उदात्तीकरण का साधन भी है | अतः मानव के लिए 'आहार' पूजा भी है । वह सत्र में बाँटकर खाता है, स्वयं का भाग त्यागता है। पहले दूसरों को खिलाता है, तब स्वयं खाता है । देवताओं को समर्पित करके खाता है । विश्व के सारे भोग जो यज्ञ के द्वारा भावित देवताओं द्वारा दिये गये हैं और इन भोगों को उन देवताओं को समर्पित न करके भोगने वाला व्यक्ति 'स्तेन'' है । यही इस बुद्धि से किये गये आहारादिक केवल सहज प्रवृत्ति मात्र को संतुष्टि करने वाले नहीं होते अपितु वे धर्म बन जाते हैं । जो यज्ञ से बचे हुए अन्न को ग्रहण करता है, वह सब पापों से मुक्त हो जाता है, पर जो अपने ही शरीर के पोषण के लिए पकाते हैं वे पाप के भागो हैं । इससे धर्म की यज्ञ व्रतादिक विशेष क्रियाओं के द्वारा जीव अपने आहारादिक की शुद्धि करता हुआ 'धृति, क्षमा' आदि धर्म के सामान्य लक्षणों में प्रतिष्ठित होता है । यही इनका लक्ष्य है । ऐसे आहारादिक अदृष्ट पंदा करते हैं, स्वर्गादि के भावक बनते हैं । जीव को मोक्ष मार्ग की ओर अग्रसर करते हैं क्योंकि इन क्रियाओं के मूल में रहने वाले भक्ति और ज्ञान में जीव प्रतिष्ठित होने लगता है ।
धर्म 'अभ्युदय' एवं 'निःश्रेयस' की प्राप्ति का एकमात्र साधन है । यतोऽभ्युदय निःश्रेयससिद्धिः स धर्मः ' - यह धर्म का सर्वमान्य लक्षण है । अभ्युदय में सब प्रकार की लौकिक उन्नति एवं विकास का अन्तर्भाव है तथा 'निःश्रेयस' मोक्ष एवं पारमार्थिक कल्याण है । धर्म में 'अभ्युदय' एवं 'निःश्र ेयस' दोनों में पूर्ण समन्वय स्थापित करने की आकांक्षा है । जिस सांसारिक 'अभ्युदय' से पारमार्थिक कल्याण में बाधा पहुँचती है, उस अभ्युदय का साधन धर्म नहीं हो सकता और जब सांसारिक कर्त्तव्यों को भूलकर व्यक्ति पारमार्थिक-कल्याण के लिए ही कार्य करने लगता है, अर्थात् अप
१. इष्टान्योगान्हि यो देवा दास्यन्ते यज्ञभावि, तैस्तानप्रदायेभ्यो यो भुंक्त स्तेन एव सः । २. यज्ञशिष्टाशिन सन्तो सुच्चन्ते सर्वकिस्विर्ण । भुञ्जते त्वघं पाया ये पचन्त्यात्मकारणात् ।
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