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धर्म का स्वरूप और
सर्वधर्म-समन्वय
धर्म भारतीय जीवन का केन्द्र बिन्दु रहा है और आज भी वह जन-जीवन की प्रधान प्रेरणा है। चिन्तन और साक्षात्कार के द्वारा भारतीय ऋषि ने जिस तत्त्व को 'धर्म' शब्द के द्वारा अभिव्यक्त किया है, वह अत्यन्त गूढ़ एवं व्यापक है। उसमें अनेक प्रत्ययों का अन्तर्भाव है । इस गहराई एवं विविधता तक अन्य संस्कृतियाँ नहीं पहुँच पाई। यही कारण है कि धर्म शब्द का वास्तविक पर्यायवाची अन्य किसी भी भाषा में उपलब्ध नहीं है। वैसे एक भाषा के शब्दों के दूसरी भाषा में पर्यायवाची शब्दों के मिलने का सिद्धान्त ही मान्य नहीं। प्रत्येक भाषा का सोचने और समझने का अर्थात् विश्व की वस्तुओं और अनुभवों के नामकरण का अपना एक विलक्षण ढङ्ग होता है। यही कारण है कि एक भाषा का अर्थजगत् दूसरी भाषा में हुबहू नहीं ढाला जा सकता। अतः एक भाषा से दूसरी भाषा में पूर्णतः यथार्थ अनुवाद की कल्पना ही नहीं है । पर शब्दों के संकेतार्थों (Denotational meaning) के अनुवाद की अपेक्षा उनके गुणार्थों, लक्षणार्थों या सम्पृक्तार्थों (Connotation) को अनूदित कर देना अधिक कठिन है। इन अर्थों का पूर्ण अनुवाद प्रायः असम्भव होता है। सम्पृक्तार्थों में प्रत्येक संस्कृति और जाति के चिन्तन की अपनी विशिष्टता रहती है। धर्म के जिस स्वरूप का साक्षातकार भारत के मनीषियों ने किया है, वह अन्यों ने नहीं। यही कारण है कि धर्म शब्द का गुणार्थ तो दूर संकेतार्थ देने वाला शब्द भी अन्य भाषाओं में नहीं है। धर्म मजहब, Religion और सम्प्रदाय नहीं है। वह Duty और Nature मात्र भी नहीं है। मजहब, Religion सम्प्रदाय Ethics, Duty,
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