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श्रमण संस्कृति : सिद्धान्त और साधना वैसे ही मानव का अहङ्कार भी उसे बेचैन बनाता है। अपने विषय में बलवान, बुद्धिमान, समृद्ध, शक्तिसम्पन्न आदि कल्पनाएँ कर मनुष्य जब अहङ्कार के पीछे पड़ता जाता है, तब वह दूसरों से अपने को श्रेष्ठ समझने लगता है, समता की साधना उससे नहीं हो सकती। यह व्यक्तिगत अहङ्कार कई बार इतना प्रबल हो जाता है कि उससे बड़े-बड़े युद्धों का निर्माण होकर करोड़ों व्यक्तियों को प्राणों से हाथ धोना पड़ता है। स्वर्गमय संसार को नरकमय बनाने का कारण बन जाता है। युद्धों के भुक्तभोगो इस बात को बहुत अच्छी तरह से जानते हैं। पिछले महायुद्धों के दुष्परिणाम संसार के लाखों-करोड़ों ऐसे व्यक्तियों को भी भुगतने पड़े, जो निरपराध थे । और आज भी युद्ध को आशंका से संसार के चिन्तक चिन्तित हैं।।
जैसे ममता और अहंता समता में बाधक है वैसे ही मताग्रह हमारे बीच भेद की दीवारें खड़ी करने में बड़ा प्रभावशाली तत्त्व है। संसार की भलाई की इच्छा रखने वाले समझदार कहलाने वाले भी इस मताग्रह से अत्यन्त पीड़ित हैं। यह मताग्रह धर्म, सम्प्रदाय या विचार के नाम पर चलता है । इससे मानव जाति को बहुत बड़ा हानि हुई है। केवल समाज को ही इसने हानि पहँचाई हो, ऐसी बात नहीं, बल्कि जो मताग्रही हैं वे भी इसके कारण अशान्त हैं, बेचैन और दुखी हैं। फिर भी यह ऐसी मीठी खाज है जिसे खुजलातेखुजलाते मनुष्य लहुलुहान होकर भी छोड़ नहीं पाता।
जैसे ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर समाज-चिन्तकों को प्रवृत्ति से निवृत्ति को ओर, बाह्य से अन्तर को ओर तथा हिंसा से अहिंसा की ओर जाने के लिए बाध्य किया, वैसे ही सैद्धान्तिक दृष्टि से भी श्रमण संस्कृति के मूलभूत तत्त्व सारे संसार की समस्याओं को सुलझाने में अमोघ अस्त्र की भाँति होने से, उनकी सार्वभौमिकता सिद्ध होती है।
केवल भारतीय ही नहीं बल्कि पाश्चात्य संस्कृति भी मौलिकता के क्षेत्र में बहुत अधिक आगे बढ़कर अस्वस्थ है, बेचैन है और उसे भी सूझ नहीं रहा है कि क्या करे ?
एक ओर जहाँ जीवन की आवश्यक जरूरतों की पूर्ति नहीं होती इसलिए असन्तोष है, वहाँ जीवन को सुखी बनाने के भौतिक साधनों
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