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श्रमण संस्कृति की सार्वभौमिकता
१३७ __ सुप्रसिद्ध बौद्ध विद्वान् स्व. धर्मानन्दजी कौसाम्बी कहते हैं कि "पार्श्वनाथ के इस चातुर्याम धर्म को पाँच यम के रूप में ब्राह्मण संस्कृति ने स्वीकार किया। महावीर ने उसका पंच महाव्रत के रूप में विस्तार किया। बुद्ध ने अष्टांगिक मार्ग के रूप में और ईसा ने टेन कमांडमेण्ट्स के रूप में इन्हीं चातुर्यामों का विस्तार किया।" इस तरह श्रमणसंस्कृति केवल जैन या बौद्धों तक ही सीमित नहीं रही वरन् उसका प्रभाव सार्वभौमिक बन गया।
अब देखना यह है कि इस संस्कृति ने किन मूल बातों पर अधिक जोर दिया है और क्या वे बातें संसार की समस्याओं को सुलझाने में सक्षम हैं ?
श्रमण संस्कृति का आधार या मूलभूत सिद्धान्त अहिंसा है जो सभी प्राणियों को अपनी तरह मानकर समता का और स्नेह का व्यवहार करने को कहता है। यदि गहराई से विचार किया जाए तो संसार को प्रत्येक कालीन सभी समस्याओं के मूल में असमता ही प्रमुख रूप से काम करती रही है। यदि एक मनुष्य दूसरे के प्रति आत्मवत् या समता का व्यवहार करे तो संसार में कोई भी समस्या उठ ही नहीं सकती, सारा संसार सुखपूर्वक रह सकता है।
श्रमण संस्कृति की समता सार्वभौम है। संसार के प्रायः सभी विचारक यह मानते है कि विषमता मानव जाति के लिए शाप है, उसके दुःखों का मूल कारण है । इसलिए समता में बाधक बातों को दूर करना चाहिए। इस में व्यक्ति और समाज-दोनों का हित है।
मानव-मानव में भेद करने वाली तीन प्रमुख बाधाएँ हैं। प्रथम है-ममता, आसक्ति या तृष्णा या कामना। मनुष्य यदि किसी भी चीज पर अधिक आसक्ति रखता है, उसे पाने को इच्छा या कामना रखता है तो वह स्वयं को दुःख के गर्त में, अशांति की अग्नि में ढकेलता है। क्योंकि कामनाएँ या तृष्णाएँ अनन्त हैं, उनकी कभी तृप्ति नहीं होती। विवेक और संयम से ही उन पर नियंत्रण लाया जा सकता है। इसलिए जिसे समता की साधना करनी हो उसे संयम को अपनाना पड़ता है, और उपलब्ध साधनों में सन्तोष मानने का अभ्यास करना होता है।
जैसे भौतिक समृद्धि, सत्ता, कीर्ति आदि की कामना दुःखदायी है,
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