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श्रमण संस्कृति : सिद्धान्त और साधना
हित थीं। इन दोनों धाराओं में पहले जंसी कटुता या संघर्ष नहीं रह गया था, पर उन विचारों को जीवन में लाने के विषय में और कहाँ किस विचार को अधिक महत्त्व दिया जाए, इस विषय में मतभेद दिखाई देता है । ब्राह्मण विचारधारा भी सम और दम को जीवनविकास में आवश्यक तो मानती थी, पर इन विचारों को जीवन में उतारने के लिए एक व्यवस्थित कार्यक्रम उसने बनाया । ब्रह्मचर्य, गार्हस्थ्य, वानप्रस्थ और संन्यास - ये चार आश्रम बनाये गए थे । प्रारम्भ में ज्ञानार्जन या सद्गुण विकास, उनका जीवन में आधान गृहस्थी सम्बन्धित कर्त्तव्यों को सामाजिक बनाने के लिए वानप्रस्थ, और अन्तिम समय में सभी का त्याग - संन्यास या निवृत्ति । परन्तु श्रमण विचारधारा ने सम, दम, धर्म के पालन के लिए समय की मर्यादा न मानकर ही व्यक्ति चाहे जिस अवस्था में संन्यास या निवृत्ति ले सकता है, उसमें समय की कोई मर्यादा नहीं रखी और न ही वर्ण का बन्धन ही रखा ।
भले ही चिन्तकों के चिन्तन में विचार परिवर्तन की प्रक्रिया चलती हो, फिर भी भौतिक सुखों के पीछे लगे लोग उनके पीछे पूरी तरह से चलने लग गये हों, ऐसा नहीं दीखता । इसलिए अहिंसा के परिणामों से त्रस्त भारत में हिंसा तो चल ही रही थी । भौतिक सुखों को विधिवत् बनाने के प्रयास भी कुछ हिंसा में विश्वास रखने वाले धार्मिकों की ओर से चल ही रहे थे और यज्ञ में हिंसा बन्द हो गई हो, ऐसा नहीं लगता ।
ऋषि, मुनि और चिन्तकों को लगा कि अहिंसा ऋषि-मुनियों या संन्यासियों तक सीमित न रहकर जनसमाज में व्यापक बननी चाहिए और इसलिए २८०० साल पहले भारतीय संस्कृति ने एक मनीषी को जन्म दिया जिसका नाम पार्श्व था, जिसने अहिंसा, सत्य, अस्तेय और अपरिग्रह को सामाजिक धर्म बनाने का प्रयत्न किया । भले ही इन चातुर्याओं का पूर्णरूप से पालन सर्वसामान्य व्यक्तियों के लिए सम्भव न हो, फिर भी अपनी शक्ति के अनुसार इस धर्म का पालन करें। लेकिन यह चातुर्याम सामाजिक धर्म के रूप में प्रतिष्ठित हो । उस युग में परिग्रह में केवल धन, सम्पत्ति ही नहीं, स्त्री का भी समावेश होता था । इसलिए अपरिग्रह में ब्रह्मचर्य का समावेश हो ही जाता था ।
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