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श्रमण संस्कृति की सार्वभौमिकता :
संसार के विभिन्न महापुरुषों ने अपने-अपने देशों में स्थिति और समय के अनुसार वहाँ के निवासियों का जीवन सफल और सार्थक बनाने के लिए जो विचार दिए, भले ही उनमें देश, काल, परिस्थिति के कारण भिन्नता हो, फिर भी उसके मूल में जो तत्त्व है, उसमें प्रमुख स्वर यही रहता है कि मानव का जीवन सफल और सार्थक कैसे बने। फिर भी इस चिन्तन में कुछ अन्तर दिखाई दे तो उसकी पार्श्वभूमि यही हो सकती है कि जहाँ चिन्तन के अनुकल या प्रतिकूल वातावरण में चिन्तन की परम्परा चली आ रही हो, वहाँ स्वाभाविक ही उस चिन्तन में अधिक गहराई होगो। जहाँ परम्परा लम्बे समय से चलो न आई हो तो उसका रूप कुछ भिन्न लगेगा। पर अन्त में सभी सयानों को एकमत पर आना ही होगा।
वैसे संसार की विचारधाराएँ दो प्रवाहों में बँटो हुई मालूम देती हैं-एक पाश्चात्य विचार पद्धति, दूसरी पौर्वात्य विचार पद्धति । पाश्चात्य विचार पद्धति यथार्थ पर आधारित और बहिर्मुखी हैस्वाभाविक भौतिकता को महत्त्व देती है। जिसमें भौतिक साधनों से मानव को सुखी बनने का अधिक से अधिक प्रयत्न है। पौर्वात्य विचारधारा अन्तर्मुखी होने से आत्मा की सुप्त-शक्तियों के विकास द्वारा मानव को सुखी बनाने में प्रयत्नशील रहने से सहज में वह संयमप्रधान बन जाती है। फिर भी भोगप्रधान विचारधारा में भी यदि मानव-समाज को ठीक से चलाना हो तो कुछ नियन्त्रण तो अपने आप पर लगाना ही पड़ता है। क्योंकि संयम के बिना मनुष्य कभी सुखी बन ही नहीं सकता। जिन्होंने संयम पर अधिक जोर दिया हो उस विचारधारा और
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