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श्रमण संस्कृति : सिद्धान्त और साधना के लिए आज की खोज है, चन्द्र ! हजारों वर्ष पूर्व आकाश के इस ग्रह पर प्रश्न उठे थे और जितने साधन समाधान के उनके पास थे, उन्होंने उन साधनों से समाधान करने का प्रयत्न किया था । आज का समाधान केवल नया है, किन्तु जिज्ञासा और जिज्ञासा का Subject वही है, इसी तरह परमाणु वर्तमान अनुसंधान का महत्त्वपूर्ण विषय है। मन बहुचर्चित विषय है, ध्यान के लिए उत्सुकता है, इन विषयों से प्राचीन ग्रंथ भरे पड़े हैं।
मेरा यह अभिप्राय नहीं है कि आज के मनुष्य के पास कोई नई बात नहीं है, या कोई नई खोज नहीं है। मैं केवल इतना ही संकेत करना चाहती हूँ कि जिस संस्कृति के उद्गम में अनन्त व्यापकता को स्पर्श करने का अपरिमेय सामर्थ्य था, आज उसके हाथ से ये विषय निकल गए हैं। चन्द्र, मन और परमाण आदि विषयों पर आज के वैज्ञानिकों की धारणाएँ प्रामाणिक मानी जाती हैं, उनकी परिभाषाएँ शास्त्र बन गई हैं और प्राचीन ग्रन्थों एवं संस्कृतियों के पक्षधरों एवं अध्येताओं की बातों को अप्रामाणिक करार दिया जा रहा है। ऐसा क्यों हो रहा है ? Occultism की कुछ बातें सिद्धान्त के रूप में उनके पास रह गई हैं। डा० खुराना की जीन थियरी की पूर्ण खोज के बाद वे उन रहस्यों के सम्बन्ध में भी कुछ नहीं कह सकेंगे। तब क्या केवल अतीत के गौरवपूर्ण अध्यायों की प्रशंसा मात्र से भविष्य में अपना स्थान सुरक्षित रख सकेंगे? कभी नहीं । वर्तमान को स्थिति अस्थिर हो चुकी है, भविष्य इससे भी अधिक उग्रतावादी आ रहा है। अतीत के विचार को अन्तिम सत्य मानने के कारण सस्कृति की सार्वभौमिकता एक तरह समाप्तप्राय हो गई है। संकीर्णता और प्रतिबद्धता ने उसकी व्यापकता को कुचल दिया है। संस्कृति की सार्वजनीनता के गौरव की सुरक्षा सार्वभौमिक बनने में है, संकीर्ण बनने में नहीं। वर्तमान के परिकरों से हटकर केवल अतीत में जीने के प्रयत्न ने संस्कृति को क्षीण और कमजोर बना दिया है। नये संशोधन और नये संपादन के सन्दर्भ से पृथक नहीं, किन्तु उसी के साथ चलकर श्रमण संस्कृति सार्वभौम बन सकती है।*
-साध्वी श्री चंदनाजी, दर्शनाचार्य
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