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श्रमण संस्कृति की सार्वजनीनता का प्रश्न :
अमेरिका और एशिया की विस्मयकारी वैज्ञानिक उपलब्धियाँ अप्रत्याशित उपलब्धियाँ नहीं हैं। मनुष्य का मस्तिष्क निरन्तर अनुसन्धानशील रहा है। इन उपलब्धियों का मूल सूदूर अतीत में है। नींव के पत्थर का प्रदर्शन नहीं होता है, किन्तु नींव का पत्थर न हो तो शिखर जो आकाश को तरफ उठा हुआ होता है, जो सबकी आँखों में चमकता रहता है, उसका कोई अस्तित्व ही नहीं हो । आज की इन महत्त्वपूर्ण उपलब्धियों के पीछे पूर्वकालीन अगणित लोगों की साधना का रहस्य है।
श्रमण संस्कृति से मेरा तात्पर्य है-जीवन की संस्कृति । ज्ञान, विज्ञान, चिन्तन और अनुसंधान को संस्कृति । जैन, बौद्ध, वैदिक आदि को भारतीय परम्परा में तथा इसी प्रकार ग्रीक, मिश्र और बेबीलोनिया की विदेशो परम्परा में जिस समृद्ध संस्कृति का विकास हुआ है, उसी संस्कृति के इर्दगिर्द आज का चिन्तन घूम रहा है । उन्हीं परम्परागत मूल तत्त्वों का आज भाष्य और परिष्कार हो रहा है । उन्हीं को नई परिभाषाएँ हो रही हैं । कोई नई बात नहीं है, कोई नया सृजन नहीं है । केवल प्रयोग की प्रधानता ने उन्हें अधिक परिष्कृत अवश्य कर दिया है, और परिष्कार के कारण ही उसका अलग अस्तित्व परिलक्षित हो रहा है। ज्ञान और विज्ञान के क्षितिज की कौनसी दिशा शून्य रही है, जिस पर अतीत के विचारकों की दृष्टि न गयी हो ? सामाजिक जीवन, राजनीतिक व्यवस्था, आर्थिक प्रबन्ध, विद्यार्थी जीवन, अध्ययन क्रम, भूगोल. खगोल, परमाणु, ध्यान, मन, आत्मा, परमात्मा --इन तमाम विषयों पर सोचा गया है और आज नये सिरे से उन्हीं विषयों की केवल पुनरावृत्ति हो रही है । उदाहरण
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