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श्रमण संस्कृति : सिद्धान्त और साधना (प्राणिवध ) के अतिरिक्त अनेकांत, अपरिग्रह, जातिप्रथा आदि (जो श्रमण संस्कृति के मूलाधार थे) पर स्वयं जैन समाज ने अधिक जोर नहीं दिया। परिणाम यह हुआ कि श्रमण संस्कृति को मजबूत नहीं बनाया जा सका । केवल जैन समाज के ही कई विभाग, भाग, उपविभाग हो गए। कोई खाई को नहीं पाट सका । अपरिग्रह की तो विडम्बना है। लेखक के एक विदेशी मित्र ने उससे व्यंग्यपूर्ण जिज्ञासा को कि' अपरिग्रह का उपदेश देने वाले जैन धर्म के अनुयायी (जन साधु नहीं) गृहस्थों में अपरिग्रह का कोई आकर्षण नहीं है । कर्मणा जाति का उद्घोष करने वाले महान् पुरुष को वाणी पर समाज ने कोई अमल नहीं किया। तात्पर्य यह है कि हमें इस दिशा की अपनी असफलता स्वीकार करनी चाहिए। ___ यदि यह कहा जाए तो अत्युक्ति न होगी कि हममें वैचारिक जड़ता इतनी आ चुकी है कि भ० पार्श्वनाथ, महावीर, बुद्ध जैसे महान क्रांतिकारी महापुरुषों के अनुयायी होने के बावजूद भी हम लकीर के फकीर हो चुके हैं। संस्कृति वास्तव में विकृति होती जा रही है। हमारे मन मस्तिष्क में कोई नया उन्मेष नहीं होता। इस विकृत परिस्थिति में आधुनिक युग की समस्याओं से जझने, उसका हल निकालकर मानव जाति का उत्थान करने की क्षमता नहीं रही है। साधु-समाज की स्थिति बड़ी विचित्र होती जा रही है। हम शब्द ( जड़ ) के गुलाम होते जा रहे हैं। उन शब्दों के पीछे जो भावना Spirit है, उसको देखकर प्रेरणा प्राप्त करने का हममें साहस नहीं रहा है। अच्छे-बुरे, पाप-पुण्य का निर्णय बाह्य परिस्थिति से करके धर्मी तथा पापी होने का प्रमाण पत्र दे देते हैं, जब कि श्रमण संस्कृति में अन्तर्वृत्ति पर अधिक जोर दिया जाता रहा है। यदि श्रमण संस्कृति को तारुण्य प्रदान करना है, तो आधुनिक समय के Challange को स्वीकार करके समस्याओं का हल निकालना होगा। आज समस्या केवल व्यक्तिगत जीवन की नहीं, अपितु समाज के जीवन की है, राष्ट्र के जीवन की है। समाज तथा राष्ट्र में व्याप्त विषमता मिटाकर समता प्रस्थापित करना होगा, जो कि श्रमण के जीवन का महत्त्वपूर्ण अङ्ग है । जैन ग्रन्थों में कहा गया है कि
"समयाए समणो होई, वंभचेरेण वंभरगो।
नाणेरण य मुरणी होई, तवेण होई तावसो॥" काश ! हम सब जैन, बौद्ध तथा और जो श्रमण संस्कृति के उन्नयन के इच्छुक हैं, नवचिन्तन के साथ व्यापक कार्य प्रारम्भ करें!*
--श्री सौभाग्यमल जैन, ऐडवोकेट
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