________________
श्रमण संस्कृति : परम्पराएँ तथा आधुनिक युगबोध
१२६ वास्तव में श्रमण संस्कृाति अहिंसाप्रधान, कमप्रधान तथा पुरुषार्थप्रधान रही है, जैसा कि इस लेख के पूर्वार्द्ध में बताया गया है। इस संस्कृति का मूलाधार अहिंसा है, वह अहिंसा केवल नकारात्मक नहीं अपितु विधेयात्मक भी है। जहाँ वह हिंसा न करने का प्रावधान करती है, वहीं समस्त प्राणिजगत् से मैत्री, करुणा एवं प्रमोद का भी उपदेश देती है। उसका मूल मन्त्र है : "सत्वेषु मैत्री गुरिणषु प्रमोदं, क्लिष्टेषु जीवेषु कृपापरत्वम् । माध्यस्थभावं विपरीत वृत्ती, सदा ममात्मा विद्धातु देव ॥"
यह भी ध्यान रखने योग्य है कि अहिंसा केवल प्राणी के प्राणनाश करने तक ही सीमित नहीं है अपितू आर्थिक क्षेत्र में अर्थजन्य द्वेष, ईर्ष्या आदि को समाप्त करने के लिए अपरिग्रह ( इच्छा परिमाण व्रत्त) का उपदेश भी करती है । अपने रहन-सहन में सात्विकता हो, आवश्यकताएं सीमित हों, इसके लिए उपभोगपरिभोगपरिमाण व्रत्त का विधान किया गया है । तात्पर्य यह है कि मानव-समाज में शोषण को वृद्धि न हो। इसी प्रकार अनेकांतवाद का विधान करके बौद्धिक अहिंसा का मार्ग प्रशस्त किया गया है। श्रमण संस्कृति के प्रभाव के सम्बन्ध में एकबार स्व० लोकमान्य तिलक ने कहा था कि ब्राह्मणों पर जैनों की अहिंसा का बहत प्रभाव पड़ा है। यह एक प्रसिद्ध घटना है कि जैनों के २२ वें तीर्थंकर अरिष्टनेमि ( नेमिनाथ ) जब विवाह के लिए पहुँचे, उन्होंने वहाँ एक पशु गृह में पशुओं की आर्तपुकार सुनी तथा जब उन्हें यह ज्ञात हुआ कि यह अतिथियों के भोजन के लिए बध किये जावेंगे तब वापस हो गये। विवाह अस्वीकार कर दिया। सहस्रों वर्ष पुरानी इस घटना ने सौराष्ट्र के जन-जीवन में अहिंसा का जो बीजारोपण किया, उसकी झाँकी आज भी वहाँ देखी जा सकती है। सौराष्ट्र में पशु-पक्षियों की शालाएँ आज भी देखी जाती हैं तथा जैन, जैनेतर लोग उत्साहपूर्वक पशु-रक्षा करते हैं । यह भी एक सुविज्ञ बात है कि हमारे देश के जनजीवन में अभी भी शाकाहार को उत्तम मानते हैं। यह जैन अहिंसा का प्रभाव है, हालाँकि गत कुछ वर्षों की परिस्थिति तथा विरुद्ध प्रचार के कारण स्थिति में परिवर्तन होता जा रहा है, किन्तु एक बात बिना संकोच के स्वीकार की जानी चाहिए कि अहिंसा
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org