________________
१२८
श्रमण संस्कृति : सिद्धान्त और साधना कात्यायन, संजय बेलि पुट भी श्रमण संस्कृति के प्रचारक थे। कुछ विद्वानों का मत है कि यह भी जिन कहलाते थे। लेखक के मत में श्रमण संस्कृति जीवन में सदाचार के उच्चतम नियमों को अङ्गीकार करने पर अधिक जोर देती थी। उसमें सैद्धान्तिक बारीकियों तथा उसमें उत्पन्न उप प्रश्नों का अधिक महत्त्व नहीं माना गया । यही कारण है कि दिगम्बर तथा श्वेताम्बर (जिनमें विस्तार की गई बातों में काफी मतभेद है, फिर भी) दोनों को श्रमण संस्कृति में महत्त्वपूर्ण स्थान है । यह कितने आश्चर्य का विषय है कि भ०महावीर के युग में साधु नग्न तथा वस्त्रसहित रहते थे, दोनों के आचार में कुछ भेद भी था । चाहे उन्हें जिनकल्पी तथा स्थविर कल्पो कहें, पर दोनों का समावेश भ० महावीर के शासन में था। दोनों आदर तथा श्रद्धा के पात्र थे । बारह वर्षीय दुष्काल के समय कुछ साधु दक्षिण में चले गये तथा कुछ साधु अन्य क्षेत्र में । खेद है, दुष्काल के पश्चात् परस्पर मिलन के समय उच्चत्व तथा निम्नत्व की भावना हई और दिगम्बर तथा श्वेताम्बर दो परम्परा का आविर्भाव हो गया । वास्तव में यह आश्चर्य का विषय है कि जो निर्ग्रन्थधर्म अनेकान्तवाद का हामी होने के कारण परस्पर विरोधी विचारधाराओं का समन्वय कर सकने का दावा करता था, उसी के अनुयायी २५०० वर्षों में परस्पर के मतभेदों का समन्वय नहीं कर सके। यह सत्य है कि इस लम्बे काल में कई प्रभावशाली आचार्य हुए जिन्होंने दूसरे सम्प्रदाय के प्रति उदारता का भाव रखा और इस प्रकार समन्वय का मार्ग प्रशस्त करने में सहायक हुए, किन्तु उन्हें इसमें सफलता नहीं मिल सकी। यदि हम श्रमण संस्कृति के मुख्य आधारों को लें तो इस निष्कर्ष पर भी पहुँच सकते हैं कि केवल भारतीय धर्म ही नहीं अपितु बाईबिल में भी इसी प्रकार के विचार मिलते हैं। बाईबिल एक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है, जिसका प्रभाव केवल पश्चिम जगत् पर ही नहीं अपितु अरब तथा दूसरे इस्लामी देशों पर भी पर्याप्त रूप से पड़ा है। बाईबिल के अनुसार परमेश्वर ने ( यहोवा ) मूसा से पर्वत के शिखर पर से (Semon of the mount) यह आदेश दिया है जिन्हें New tetament कहा जाता है। इन दश आज्ञाओं का अवलोकन करें तो यह ज्ञात होगा कि इनमें से कई हमारी श्रमण संस्कृति के मूलाधार जैसी ही हैं।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org