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श्रमण संस्कृति : परम्पराएँ तथा आधुनिक युगबोध
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उन्होंने कर्म के सिद्धान्त का निरूपण किया, तथा स्पष्ट कर दिया कि कर्मफल से संसार का कोई महान् व्यक्ति भी नहीं बच सकता । सुकर्म तथा दुष्कर्म का अन्त होने से हो जीवन्मुक्त अवस्था प्राप्त होती है। यूरोपीय विद्वानों ने श्रमण संस्कृति के उन्नायकों में जिन महापुरुषों की ऐतिहासिकता मानी है, उनमें भगवान् पार्श्वनाथ प्रमुख हैं । उन्होंने आत्मा के कर्मसमूह को नष्ट करने तथा शुभ जीवन व्यतीत करने के लिए "चातुर्याम धर्म" का प्रतिपादन किया। प्रसिद्ध बौद्ध विद्वान् स्व० श्री घर्मानन्दजी कोसाम्बी ने अपनी पुस्तक "पार्श्वनाथ का चातुर्याम" की प्रस्तावना में यह स्वीकार किया है कि "आज जो कुछ श्रमण संस्कृति शेष बची है, उसके आदिगुरु पार्श्वनाथ हैं और बुद्ध के समान यह भी श्रद्धेय हैं ।' इसी पुस्तक के पृष्ठ १४ में अङ्कित किया है कि
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" त्रिपिटक में निग्रन्थों का उल्लेख अनेक स्थानों पर हुआ है । उससे ऐसा दिखाई देता है कि निर्ग्रन्थ सम्प्रदाय बुद्ध से वर्षों पहले से मौजूद था । अंगुत्तरनिकाय में यह उल्लेख पाया जाता है कि a नाम का शाक्य निर्ग्रन्थों का श्रावक था । उस सुत्त की अनुकथा में यह कहा गया है कि यह बप्प बुद्ध का चाचा था । अर्थात् यों कहना पड़ता है कि बुद्ध के जन्म के पहले या उनकी छोटी उम्र में ही निर्ग्रन्थों का धर्म शाक्य देश में पहुँच गया था । महावीर स्वामी बुद्ध के समकालीन थे । अतः यह मानना उचित होगा कि यह धर्मप्रचार उन्होंने नहीं बल्कि उनके पहले के निर्ग्रन्थों ने किया था ।"
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श्रमण संस्कृति के पुरस्कर्ता भगवान् महावीर तथा उनके समकालीन शाक्य पुत्र गौतम बुद्ध तो थे ही किन्तु लगभग छठी शताब्दी में रचित निशीथ चूर्णि में श्रमणों में निर्ग्रन्थ, शाक्य, तापस, गैरिक, आजीवकों की गणना भी की गई है । आजीवक सम्प्रदाय भगवान् महावीर के समय में भी मौजूद था और यह कहा जाता है कि निर्ग्रन्थ धर्म तथा आजोवक सम्प्रदाय के आचार एक-दूसरे के निकट थे। हालाँकि जैन साहित्य में गोशालक को निह्नव बताया गया है और त्रिराशिवाद को छठा निह्नवमत अङ्कित किया गया है । इसके अनुयायियों को आजीवक मत का अनुकर्त्ता बताया गया है । इसके प्रतिष्ठाता कल्पसूत्र के अनुसार आर्य महागिरि के शिष्य रोहगुप्त थे । गोशालक के अतिरिक्त पूरणकश्यप, अजित केश कम्बल, पकुध
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