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श्रमण संस्कृति : सिद्धान्त और साधना ____ वेदकालीन परिस्थिति में जहाँ मानव का चिन्तन केवल भौतिक समृद्धि के लिए था, उपनिषद्काल में वह चिन्तन कुछ आध्यात्मिक होगया । स्वर्ग आदि के सम्बन्ध में मानव ने चिन्तन तो किया किन्तु फिर भी मानव समाज बड़ी तीव्रता से शांति की खोज में था। उपनिषदकालीन आत्मविद्या से भी उसे सन्तोष नहीं हुआ। मानव समाज का अन्तिम लक्ष्य "मुक्ति" था और वह उसकी प्राप्ति के उपाय की खोज में था। कहना न होगा कि आत्मा मूलतः शुद्ध-बुद्ध है। मौलिक रूप से परमात्मा अथवा साधारण आत्मा को Potentiality में कोई भेद नहीं था। केवल भेद यह था कि एक राग-द्वेष के बन्धन से मुक्त थी तथा दूसरी बंधनयुक्त थी, जैसा कि कहा गया है :
"शुद्धोऽसि बुद्धोऽसि निरञ्जनोऽसि ।
संसारमाया • परिवजितोऽसि ॥" "सिद्धा जैसा जोव है, जीव सोही सिद्ध होय ।
कर्ममैल का अन्तरा, बुझे विरला कोय ॥" प्रश्न यह कि आत्मा राग-द्वेष के बन्धनों से किस प्रकार मुक्त हो । तत्कालीन मानव प्रत्येक लक्ष्य की प्राप्ति के लिए ईश्वर अथवा देवता का अनुग्रह प्राप्त करके इच्छित लक्ष्य पूर्ति का मार्ग जानता था। श्रमण संस्कृति के प्रथम उद्गाता भगवान् ऋषभदेव तथा श्रमण संस्कृति के महान् उन्नायक भगवान् महावीर ने यह उद्घोष किया कि 'मानव ! तुमको किसी ईश्वर या देवता की गुलामी की आवश्यकता नहीं है, स्वयं आत्मा शुभ-अशुभ कर्मों को कर्ता है और वही स्वयं बन्धनमुक्त हो सकती है। तुम ही स्वयं के मित्र तथा
शत्र हो।"
"अप्पा कत्ता विकत्ता य, दुहाण य सुहाग य । अप्पामित्तममित्तं च दुप्पठ्यि सुपठिठओ ।। अप्पा नई वेयरणी, अप्पा मे कूड सामली।
अप्पा काम दुहा घेरण , अप्पा मे नंदरणंवरणं ॥" तात्पर्य यह है कि भ० महावीर ने प्रवाह के विरुद्ध मानव को उच्चता का घोष किया और उसमें आत्मविश्वास जगाया।
"नहि मानुषात् श्रेष्ठतरं हि किंचित् ।"
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