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श्रमण संस्कृति : सिद्धान्त और साधना मानव आत्मा के स्वाभाविक गुणों का विकास करके मोक्ष का मार्ग प्रशस्त करता है। इस कारण उसे विशिष्ट नाम से सम्बोधित किया जाना उचित नहीं है। लेखक के मत में प्रागतिहासिक काल में उसका कोई विशेष नाम भी नहीं था। उसे 'आत्म धर्म" कहा जाता था। किन्तु पश्चातवर्ती युग में उसे निग्रंथ धर्म" कहा जाने लगा और बाद में इस कारण कि उसके उपदेष्टा "जिन" थे अतः उसका "जैन धम' नामकरण हो गया। जो भी हो, इतना स्पष्ट है कि वह अनादि, अनन्त है। मानव-समाज तथा सृष्टि अनादि है, इसलिए यह "आत्म धर्म" भा अनादि है। फिर भी उपलब्ध जैन साहित्य पर से श्रमण संस्कृति की परम्परा के सूत्र देखने होंगे । वर्तमान के चौबीस तीर्थंकर (जिन) में सबसे पहले ऋषभदेव का नाम आता है, जो समाज व्यवस्था का सूत्रपात करने वाले प्रथम राजा, प्रथम जिन तथा प्रथम धर्मोपदेष्टा थे। जैन मान्यता के अनुसार १४ कुलकर तथा वैदिक मान्यता के अनुसार १४ मनु होते हैं। इसमें अंतिम "नाभिराय" थे। (चाहे इन्हें कुलकर कहा जाए या मनु किन्तु दोनों मान्यता में नाभिराय सामान्य है) उनके पुत्र ऋषभदेव हैं, यह यूग-इतिहास की पहँच के परे हैं, किन्तु श्री मदभागवत के अनुसार ऋषभदेव ( नाभिराय के पुत्र ) मोक्ष मार्ग के उपदेशक के रूप में प्रसिद्ध थे। उन्हें वासुदेव का अष्टम अवतार माना गया है । ब्राह्मण परम्परा के अन्य साहित्य में भी उनका उल्लेख उच्च कोटि का है। मोटे तौर पर श्रमण संस्कृति का उद्गम ऋषभ देव से कहा जा सकता है। उसके पश्चात् के २० तीर्थंकरों के सम्बन्ध में विस्तृत माहिति नहीं मिलती। किन्तु २२वें तीर्थंकर अरिष्टनेमि (नेमीनाथ) श्रीकृष्ण के चचेरे भाई थे और उनका उल्लेख ऋग्वेद में आता है। यूरोपोय कई विद्वानों ने विशेषकर मैक्समूलर' ने भ. पार्श्वनाथ तथा महावीर की ऐतिहासिकता स्वीकार की है।।
तात्पर्य यह है कि यह सब महापुरुष श्रमण संस्कृति के उन्नायक
1. That Parshva was a historical person is admitted by all as very probably. ___-"Sacred book of the east," Vol XLV-Introduction, Page 21.
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