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________________ ११८ श्रमण संस्कृति : सिद्धान्त और साधना लेकिन श्रमणसंस्कृति के उन्नायक भ० महावीर तथा भ० गौतम बुद्ध-इन दोनों ने इस स्वार्थी चातुर्वर्ण का कठोर विरोध किया। वे जनता में जाकर उनकी बोली--प्राकृत भाषा में जीवन के सत्यस्वरूप का स्पष्ट उद्घोष करने लगे। "मैं उत्तम ब्राह्मण हूँ, मैं वैश्य हूँ, मैं क्षत्रिय हूं, मैं इसके अलावा (शूद्र) हूँ । पुरुष हूँ, नपुंसक हूँ, स्त्री हूँ;' इसी तरह वह मूर्ख शरीरभावों को अपना मानता है। तथा युवक, बूढ़ा, रूपवान, शूर, पण्डित, सर्वश्रेष्ठ, दिगंबर, श्वेताम्बर, बौद्धमताचार्य, आदि सब शरीरभेदों को वह मूर्ख अपना मानता है । अपने कर्म के अनुसार माता कन्या होतो है, कन्या माता बनती है, पुरुष स्त्री होता है, स्त्री पुरुष या नपुंसक बनतो है । प्रतापी, सत्ताधीश, बलवीर्य तथा रूप, गुणसम्पन्न राजा होकर भी वह पाखाना में कृमिकीट बनता है ।१० ___भगवान् बुद्ध, भारद्वाज और वसिष्ठ शिष्यों को यथार्थता से प्राणियों का जातिविभाग समझाते हुए कहते हैं - 'आप घास और पेड़ों को देखो। उनका जातिविशिष्ट आकार है।११ यही स्थिति कीट, पतंग, चींटियाँ, चतुष्पाद प्राणी, पेट से चलने वाले साँप, पानी के जलचर जीव, आकाश में भ्रमण करने वाले अलग-अलग पंछी, इनके भी जातिविशिष्ट आकार हैं। क्योंकि उन सबमें भिन्न-भिन्न जातियाँ हैं। लेकिन मनुष्य के शरीर में इस प्रकार के जातिविशिष्ट विभिन्न आकार नहीं दिखाई देते। शूद्र के मस्तक ६. हउ वरु बंभणु वइसु हउ हउँ खत्तिउ हउ सेसु । पुरिसउ णउसउ इत्थि हउँमण्णइ मूढ़ विसेसु ।। तरुण बूढ़उ रूयडउ सूरउ पंडिउ दिव्वु ।। खवणउ बंदउ सेयडउ मूढउ मण्णइ सव्वु ।। -श्री योगिन्दुदेवविरचितः परमात्मप्रकाशन ८१-८२ १०. मादा य होदि धदा धुदा मादुत्तण पुण उवेदि । पुरिसो वि तत्थ इत्थी पुमं च अपुमं च होदि जए ॥२६॥ होऊण तेयसत्ताचिओ दु बलवीरियरूवसंपण्णो ॥ जादो वच्चधरे किमि धिगत्थु संसारवासस्स ॥२७।। -श्रीमट्टकेराचार्यविरचित मूलाचारः-द्वादशानुप्रेक्षाधिकारः ११. सुत्तनिपात, ३-६.८६ १२. ३-६-६ से १३; १३-३-६-१४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003192
Book TitleShraman Sanskruti Siddhant aur Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalakumar
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1971
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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