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वर्णाश्रम व्यवस्था का विवेचन
११७ से उत्पन्न हुए, इसलिए शत्रु से युद्ध कर गो-ब्राह्मणों की रक्षा करना उनका आद्य कर्त्तव्य हुआ । उसके उदर से वैश्य की उत्पत्ति होने से व्यापार के द्वारा राष्ट्र को समृद्ध करना उनका उद्योग बना। तथा शूद्र का उसके पावों से निर्माण हुआ, इसलिए रास्ता साफ करना, आदि नीच माने गए काम करके तथाकथित उच्चवों की सेवा करना, यही काम उनके सिर पर पडा। ___ यह चातुर्वर्ण की उत्पत्ति यद्यपि बुद्धिग्राह्य नहीं, तो भी मनुष्य जो व्यवसाय करते हैं उसके अनुसार उनको ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि कहा गया।
प्राचीन ऋषि (ब्राह्मण) संयतात्मा और तपस्वी थे । वे पंचेन्द्रियविषयों का त्याग कर आत्मार्थ चिंतन करते थे। लेकिन इसके बाद राजा का द्रव्य और अलंकृत स्त्रियाँ देखकर ब्राह्मणों की दृष्टि पलट गई।५ गायों तथा सुन्दर स्त्रियों के बारे में वे लालायित होने लगे। इस इच्छापूर्ति के लिए उन्होंने मन्त्रों को रचना की । वे राजा इक्ष्वाकु के पास जाकर कहने लगे-'आपके पास बहुत धनधान्य है, आप यज्ञ करें।'७ ।
जिस मात्रा में राजाओं से धन, स्त्री आदि भोगोपभोग मिलने लगे, उसी मात्रा में उनकी इच्छा और ज्यादा बढ़ने लगी। धर्मग्रन्थों में परिवर्तन होने लगे। इस तरह चातुर्वर्णव्यवस्था स्वार्थ और भोगलालसाओं में से उद्भूत हई । माता और पिता के दोनों कूल से शुद्ध होने के कारण जिसका जन्म पवित्र माना गया और सात पीढ़ी तक जिसके कुल को जातिप्रवाद दोष न लगा हो, वही ब्राह्मण ठ हरा।'
४. इसयो पुब्बका आसु सञतत्ता तपस्सिनो।
पञ्च कामगुणे हित्वा अत्तदत्थम चारिसु।। -सुत्तनिपात २-७-१ ५. तेसं आसि विपल्लासो दिस्वान अणुतो अणु।
राजिनो च वियाकारं नारियो समलंकता ॥ -सुत्तनिपास २-७-१६ ६. गोमण्डलपरिबुड्ढे नारीपदगणायुतं । __उदारं मानुषं भोगं अभिजूनायिंसु ब्राह्मणा । —सुत्तनिपात २-७-७५ ७. ते तत्थ मत्त गन्थत्वा ओक्काकं तदुपागमु।
पहूतधनधोऽसि यजस्सु बहु ते धनं ॥ -सुत्तनिपात २-७-६२ ८. यतो खो उभतो सुजातो होति मातितो च पितितो च, संसुद्धगहणिको
याब सत्तसा पितामहयुगा आक्खितो अनुपकुछौ जातिवादेन, एत्तावता खो ब्राह्मणो होतीति ।
-सुत्तनिपात ३-६
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