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श्रमण संस्कृति के परिप्रेक्ष्य में वर्णाश्रम व्यवस्था का विवेचन
जीवन को संस्कारित करना, मन को अच्छी तरह से मोड़ देना तथा विचारों का परिमार्जन करना, यही है संस्कृति का सीधा अर्थ । समताभाव से श्रमण होता है तथा तप से, ब्रह्मचर्य से, सयम से और इन्द्रिय दमन से ब्राह्मण होता है, यह ब्राह्मण्य उत्तम होता है। ऐसी है श्रमण और ब्राह्मण संस्कृति ।
आज तक इस विशाल धरती पर समय की आवश्यकता से भगवान् आदि प्रभु, श्रीकृष्ण, महावीर, बुद्ध, यीशू महम्मद, जरथ प्ट, आदि अनेक द्रष्टाओं ने मानवों में मानवता पैदा हो और मानव जाति समृद्ध हो, इसलिए कहा- 'मुझे अंधकार से प्रकाश को ओर, असत्य से सत्य की ओर और मृत्यु से अमरता की ओर ले चलो। 3 हम मिलकर चलें, मिलकर बोलें, मिलकर काम करें और सदा मिलकर ही रहें तथा अपनी संस्कृति के पावन आदर्श 'वसुधैव कुटम्बकम' का निर्माण करें। वैसे ही दुराचरणों का त्याग कर, सदाचारों को अंगीकार कर, आत्मोन्नति के साथ स्वयं परमात्मा बनें, यही इन द्रष्टाओं का दिव्य संदेश है।
लेकिन वेद को अपौरुषेय मानकर वेदप्रमाण ग्रन्थों में चातुर्वर्ण की निर्मिति कही है-ब्राह्मण ब्रह्मा के मुख से निर्मित हुए, इसलिए यजन-याजन उनका पवित्र कार्य माना गया है । क्षत्रिय उनके बाहु
१. समयाए समणो होइ। -उत्तर ज्झयणसुत्त २५-३८ २. तपेन ब्रह्मचरियेन संयमेन दमेन च ।
एतेन ब्राह्मणो होति एतं ब्राह्मणमुत्तमं ।। --सुत्तनिपात ३-६-६२ ३. तमसो मा ज्योतिर्गमय । असतो मा सद्गमय । मृत्योर्माभृतम् गमय ।
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