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श्रमण संस्कृति के चार आदश उपासक
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टूट
जाने से वह विकलांग
बिकाऊ बर्तन को तरह होती है, हाथ-पैर हो जाती है, लोग उससे घृणा करने लगते हैं, उसके विवाह आदि में विघ्न आते हैं। मेरो मन्दगति का कारण अब आप समझ गए होंगे !"
कुछ देर विशाखा के साथ वार्तालाप के बाद उन आगन्तुकों को उसके अनिंद्य सौन्दर्य, लावण्य के साथ-साथ चातुर्य एवं वचनमाधुर्य का भी पता चला । वे सन्तुष्ट हुए। फिर मृगार श्रेष्ठी के पुत्र के लिए विशाखा की याचना हुई और बड़ी धूमधाम के साथ पाणिग्रहण हुआ ।
धनंजय श्रेष्ठी ने विशाखा को प्रचुर धनसामग्री दहेज में दी । धम्मपद अट्ठकथा के अनुसार वह सामग्री पचपन सौ गाडों में भरी गई । पन्द्रह सौ गाडों में तो केवल खेती का ही सामान था । एक बहुमूल्य आभूषण 'महालता प्रसाधन' भी श्रेष्ठी ने दहेज में दिया, जिसका मूल्य नौ करोड़ स्वर्णमुद्रा था ।
धनंजय ने पति गृह को जाती हुई कन्या को दस बहुमूल्य शिक्षाएँ दीं:
१. घर की आग बाहर नहीं ले जानी चाहिए ।
२. बाहर की आग घर में नहीं लानी चाहिए । ३. देने वाले को ही देना चाहिए ।
४. न देने वालों को नहीं देना चाहिए ।
५. देने वालों को एवं न देनेवालों को भी देना चाहिए ।
६. सुख से बैठना चाहिए ।
७. सुख से खाना चाहिए ।
८. सुख से लेटना चाहिए ।
६. अग्नि की तरह परिचरण करना चाहिए ।
१०. घर के देवताओं को नमस्कार करना चाहिए ।
मृगार श्रेष्ठी ने भी धनंजय की ये शिक्षाएँ सुनी, पर वह उनका कोई तात्पर्य नहीं समझ सका । बहुत समय बाद एकबार मृगार श्रेष्ठी ने विशाखा से पिता की इन बातों का तात्पर्य पूछा तो विशाखा ने बताया- "पहली बात से अभिप्राय है, घर के कर्मकरों आदि की गलतियों को बाहर दूसरों के समक्ष नहीं कहना चाहिए, इसी
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