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श्रमण संस्कृति : सिद्धान्त और साधना
कुछ लोग मानते हैं, धर्म आत्मा की वस्तु है। यह ठीक भी है, परन्तु धर्म सिर्फ आत्मा को ही वस्तु नहीं, अपितु वह सामाजिक वस्तु भी है। जब तक धर्म का तत्त्व समाजगत नहीं होता, वह धर्म एक परम्परा या संस्कृति का रूप धारण नहीं कर सकता । यह संभव नहीं था कि केवल त्यागी वर्ग के बल पर ही किसी परम्परा या संस्कृति का निर्माण हो जाता। इस संस्कृति के निर्माण एवं विकास में उपासक वर्ग का भी उतना ही, बल्कि उससे कुछ अधिक ही योग रहा है। उसका जीवन सामाजिक होता है, इसलिए उसमें परिवार, समाज तथा राष्ट्र आदि की अनेक दिशाएँ विकास के लिए ख ली होती हैं। उन दिशाओं में उसकी स्वस्थ गति-प्रगति का उपक्रम ही संस्कृति का मूल तत्त्व है। अतः प्रस्तुत में श्रमण संस्कृति के उस उपासक वर्ग को जीवन-साधना का एक संक्षिप्त रेखांकन यहाँ दिया जा रहा है। __ जैन अङ्ग सूत्र 'उवासग दशा' में भगवान महावीर के प्रमुख दस उपासकों को जीवनचर्या का व्यवस्थित वर्णन मिलता है । कुछ उपासक एवं उपासिकाओं का वर्णन भगवतो सूत्र में भी प्राप्त होता है, किन्तु जितना विस्तार उवासग दशा में किया गया है, उतना वहाँ नहीं। यह भी उल्लेखनीय है कि जैन-परम्परा की भांति बौद्ध परम्परा में भी गृहस्थ साधक के लिए 'उपासक' शब्द प्रयुक्त हुआ है। 'श्रमणोपासक' शब्द भी दोनों परम्पराओं में मिलता है। हाँ, जैन परम्परा में गृहस्थ के लिए 'सावए'२-श्रावक शब्द भी व्यवहृत हुआ है, वहाँ बौद्ध-परम्परा में श्रावक शब्द भिक्ष और उपासक दोनों के लिए चलता रहा है। भगवान् महावीर के उपासकों ( श्रावकश्राविका ) को कुल संख्या चार लाख सतत्तर हजार बताई गई है। बुद्ध के उपासकों की ऐसी कोई निश्चित संख्या प्राप्त नहीं होती। भगवान महावीर के श्रावकों में गाथापति आनन्द श्रावक प्रमुख था।
१. भगवती सूत्र १२।१ । २. भगवती । ३. अंगुत्तरनिकाय, एककनिपात १४ । ४. समवायांग सूत्र ११४ । ११५ ।
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