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श्रमण-संस्कृति के चार आदर्श उपासक
'श्रमण' शब्द सामान्यतः एक विशिष्ट परंपरा के 'भिक्षु' का वाचक है। किन्तु गहराई से देखने पर 'श्रमण' एक 'भिक्षुक' मात्र नहीं, अपितु एक समतावादी व्यक्तित्व का सूचक है। जिसका जीवन तपस्या-प्रधान तथा हृदय समताप्रधान हो वह 'श्रमण' कहलाता है।' इस परिभाषा के अनुसार 'श्रमण संस्कृति' का अर्थ हैसमताप्रधान संस्कृति । इस संस्कृति में भिक्षु एवं गृहस्थ दोनों का योगदान होने से दोनों ही श्रमणसंस्कृति के अङ्गभूत एवं उसकी धुरी के संचालक हो सकते हैं। वास्तव में जिस प्रकार गाड़ी के दो पहिए समान रूप से गाड़ी का भारवाहन करते हैं, उसी प्रकार भिक्षु एवं उपासक श्रमण संस्कृति की गाड़ी के संवाहक रहे हैं, दोनों के तपःपूत जोवनव्यवहारों से ही इस संस्कृति का विकास, विस्तार एवं संवर्धन हुआ है।
श्रमण संस्कृति के इतिहास में तपोधन श्रमणों की जीवन गाथाएँ उसके प्रतिपृष्ठ पर चमक रही हैं। उग्र तपस्या, तितिक्षा, समत्वआराधना और प्राणिमात्र के प्रति असीम करुणा का अविरल स्रोत बहाती हुई श्रमणों की जीवन-गाथा युग-युग से प्रेरणा स्रोत बनी हुई है। पर, हमें भूल नहीं जाना है, श्रमण और श्रमणी इस संस्कृति के एक अङ्ग हैं, संपूर्ण संस्कृति नहीं। संस्कृति की परिपूर्णता तब होती है, जब उसमें गृहस्थ--उपासक-उपासिकाओं की धारा भी आ मिलती है। श्रमण-जीवन की धारा जितनी पवित्र और तपःप्रेरित है, उतनी ही नहीं तो, उस लक्ष्य की ओर उतनी ही उन्मुख हुई गृहस्थ जीवन की धारा भी उसी वेग के साथ प्रवाहित होती रही है। १. (क) समणइ तेण सो समणे
-अनुयोग द्वार, १२६ । (ख) उवसमसारं खु सामण्णं
-बृहत्कल्प सूत्र, ११३५ । १०३
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