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श्रमण संस्कृति : सिद्धान्त और साधना
में आरूढ़ हुआ । उसका वह वैषयिक लक्ष्य तब मिटा, जब सारिपुत्र आदि महाश्रावकों (भिक्षुओं ) ने उसे इस बात पर लज्जित किया कि वह अप्सराओं के लिए भिक्षु धर्म का पालन कर रहा है । इस प्रकार विषय मुक्त होकर वह अर्हत् हुआ । ४
मेघकुमार और नन्द के विचलित होने के निमित्त सर्वथा भिन्न थे, पर घटना क्रम दोनों का ही बहुत सरस और बहुत समान है । महावीर मेघकुमार को पूर्व-भव का दुःख बताकर सुस्थिर करते हैं और बुद्ध नन्द को आगामी भव के सुख बताकर सुस्थिर करते हैं । विशेष उल्लेखनीय यह है कि मेघकुमार की तरह प्राक्तन भवों में नन्द के भी हाथी होने का वर्णन जातक में है ।
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शालिभद्र :
राजगृह के शालिभद्र, जिनके वैभव को देखकर राजा बिम्बिसार भी विस्मित रह गये थे, भिक्षु-जीवन में आकर उत्कट तपस्वी बने । मासिक, द्विमासिक और त्रैमासिक तप उनके निरन्तर चलता रहता । एकबार महावीर बृहत् भिक्षु संघ के साथ राजगृह आये । शालिभद्र भी साथ थे। उस दिन उनके एक महीने की तपस्या का पारण होना था । उन्होंने नतमस्तक हो, महावीर से भिक्षार्थ नगर में जाने की आज्ञा मांगी। महावीर ने कहा - " जाओ, अपनी माता के हाथ से 'पारण' पाओ ।" शालिभद्र अपनी माता भद्रा के घर आये । भद्रा महावीर और अपने पुत्र के दर्शन को तैयार हो रही थी । उत्सुकता में उसने घर आये मुनि की ओर ध्यान ही नहीं दिया । कर्मकरों ने भी अपने स्वामी को नहीं पहचाना । शालिभद्र बिना भिक्षा पाये ही लौट गये। रास्ते में एक अहोरिन मिली । वह दही का मटका लिए जा रही थी। मुनि को देखकर उसके मन में स्नेह जगा ।
८४. सुत्तनिपात अट्ठकथा, पृ० २७२, धम्मपद - अट्ठकथा. पृ० ६६- १०५. जातक सं० १८२ | थेरगाथा १५७, Dictionary of Pali Proper Names, Vol. 1, PP. 10. 11
खण्ड १,
८५. सङ्गामावचर जातक, सं० १८२, (हिन्दी अनुवाद) खण्ड २,
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पृ० २४८-२५४
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