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________________ उत्तम पुरुषों की कथाएँ ८ १ हुए देवगणों से उसने पूछा- आप सन्तुष्ट होकर क्रीड़ा किस तरह से कर रहे हैं ? हमें भी इसका रहस्य बतायें । देवों ने कहा- राजा शुद्धोदन के यहाँ पुत्र उत्पन्न हुआ है, वह धर्मचक्र प्रवर्तन करेगा, उसकी अनन्त लीला देखने और सुनने का हमें अवसर मिलेगा । यही हमारी प्रसन्नता का मुख्य कारण है । तपस्वी देवलोक से उतर कर राजमहल में पहुँचा । राजा को जाकर कहा कि मैं आपके पुत्र को देखना चाहता हूँ । राजा ने उसी क्षण पुत्र को अपने पास मँगवाया और पुत्र को तपस्वी के चरणों में लगाना चाहा पर बोधिसत्व के चरण इतने लम्बे हो गये कि तापस की जटा में जा लगे, क्योंकि बोधिसत्व किसी को भी नमस्कार नहीं करते । यदि वही चरण अनजाने में लग जाता तो उसके सिर के सात टुकड़े हो जाते । तथागत के दिव्य तेज को देखकर तापस उनके चरणों में गिर पड़ा । बोधिसत्व के चरण-स्पर्श से उसे अस्सी कल्प की स्मृति हो आई । उसने बालक के शारीरिक लक्षणों को देखा, उसे पूर्ण विश्वास हो गया कि यह अवश्य ही बुद्ध बनेगा और वह ज्ञान से यह सोचने लगा कि मैं यहाँ मरकर अरूप लोक में पैदा होऊँगा जिससे इनके दर्शन नहीं हो सकेंगे । इस तरह बोधिसत्व के जन्म की घटनाओं में भी अलौकिकता रही हुई है । यह अलौकिकता यह सिद्ध करती है कि ये घटनायें श्रद्धा के युग में लिखी हुई हैं। श्रद्धालु घटनाविशेष को तर्क की कसौटी पर नहीं कसता । वैदिक परम्परा के ग्रन्थों में भी श्रद्धा युग की अनेक घटनायें मिलती हैं । ऋषभ कथा का विस्तार भगवान् ऋषभदेव के जन्म, वंश, उत्पत्ति, विवाह, राज्याभिषेक और उनके एक सौ दो सन्तान आदि का उल्लेख जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति में विस्तार से नहीं है । आवश्यकनियुक्ति' आवश्यक चूर्णि ' आवश्यक हरिभद्रियावृत्ति * आवश्यक मलयगिरी वृत्ति चउपन्न महापुरिस चरियं त्रिषष्टिशलाका 2 १. आवश्यक नियुक्ति, पूर्वभाग, प्रकाशक - श्री आगमोदय समिति, सन् १९२८ । २. आवश्यकचूर्णि, ऋषभदेवजी केशरीमल जी श्वे० संस्था, रतलाम, सन् १९२८ । ३. आवश्यक हरिभद्रिया वृत्ति, प्रथम विभाग, प्रकाशक - आगमोदय समिति ४. आवश्यक मलयगिरिवृत्ति, पूर्व भाग, प्रकाशक - आगमोदग समिति । ५. चउप्पन महापुरिस चरियं - आचार्य शीलांक विरचित - वाराणसी । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003190
Book TitleJain Katha Sahitya ki Vikas Yatra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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