SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 96
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ८० जैन कथा साहित्य की विकास यात्रा जन्म दिया है। बोधिसत्व अन्य मानवों की तरह माता की कुक्षि से गन्दे व मलविलिप्त नहीं निकलते, वे धर्मासन से उतरते हुए पुरुष के समान दोनों हाथ और दोनों पैर फैलाये हुए, खड़े मानव की तरह मल से सर्वथा अलिप्त, काशी देश के शुद्ध व निलिप्त वस्त्र में रखे हुए, मणि रत्न के समान चमकते हुए माता के उदर से निकलते हैं। बोधिसत्व और उनकी माता के सत्कारार्थ आकाश में से दो जल-धारायें निकलती हैं और वे दोनों के शरीर को शीतल करती हैं। ब्रह्माओं के हाथों से चारों महाराजाओं ने उन्हें मांगलिक समझे जाने वाले कोमल मृगचर्म में ग्रहण किया, उनके हाथ से मानवों ने दुकूल की तह में ग्रहण किया। बोधिसत्व उन मानवों के हाथ से छूटकर पृथ्वी पर खड़े हो गये। उन्होंने पूर्व दिशा की ओर निहारा, अनेक सहस्र चक्रवाल एक आंगन से हो गये। वहाँ पर देव और मानव गन्धमाला प्रभृति से अर्चना करते हए बोले-हे महापुरुष ! आपके सदृश यहाँ पर कोई नहीं है। आप से विशिष्ट व्यक्ति यहाँ कहाँ से आयेगा? बोधिसत्व ने चारों दिशाओं और अनुदिशाओं को ऊपर नीचे अच्छी तरह से देखा। किसी को वहाँ पर न देखकर बोधिसत्व उत्तर दिशा में सात कदम आगे बढ़े। महाब्रह्मा ने उस समय उन पर श्वेत छत्र धारण किया। सूयामों ने तालव्यजन और अन्य देवताओं ने राजाओं के अन्य कपूधभाण्ड अर्थात् खड्ग, छत्र, मुकुट, पादुका और पंखा लिये हुए उनका अनुगमन किया। सातवें कदम पर अवस्थित होकर 'मैं संसार में सर्वश्रेष्ठ हूँ', इस प्रकार सिंहनाद किया। लुम्बिनी वन में जिस समय बोधिसत्व उत्पन्न हुए, उसी समय राहुल माता देवी, अमात्यछन्न, अमात्य-कासदाई, हस्तीराज, आजानीय, अश्व राज, कन्धक, महाबोधि वृक्ष और निधि सम्भृत चार कलश पैदा हुए। वे कलश क्रमशः गव्यूति, आधा योजन, तीन गव्यूति, एक योजन की दूरी पर थे। ये सात एक ही समय पैदा हुए । दोनों नगरों के निवासी बोधिसत्व को लेकर कपिलवस्तु नगर में आये ।। कालदेवल तपस्वी जो आठ समाधि से सम्पन्न थे, वे भोजनादि से निवृत्त होकर मनोविनोदार्थ त्रयस्त्रिश देवलोक में गये । वहाँ विश्रान्ति लेते १. देखिए-आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन, पृ० १५५ डा० मुनि नगराज जी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003190
Book TitleJain Katha Sahitya ki Vikas Yatra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy