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________________ उत्तम पुरुषों की कथाएँ ७६ मय, स्वर्ण-मणिमय, स्वर्ण-रजत-मणिमय मृत्तिकामय, चन्दन के कलश, लोटे, थाल, सूप्रतिष्ठिका, चित्रक, रत्नकरण्डक, पंखे, एक हजार आठ प्रकार के धूप, सभी प्रकार के फूल, आदि विविध प्रकार की सामग्री लेकर उपस्थित होओ। जब वे उपस्थित हो गये तो उन कलशों में क्षीरोदक, पुष्करोदक भरत, ऐरवत, अत्र के मागधादि तीर्थों के जल, गंगा आदि महानदियों के जल, सभी वर्षधर चक्रवर्ती विजयों, वक्षस्कार पर्वत के द्रहों, महानदियों के जल से पूर्ण करके उन कलशों पर क्षीर सागर के सहस्रदल कमलों के ढक्कन लगाकर सुदर्शन, भद्रसाल, नन्दन आदि वनों के पुष्प, गोशीर्ष चन्दन और श्रेष्ठतम औषधियाँ लेकर अभिषेक करने के लिए तैयार हुए। अच्युतेन्द्र चन्दन चर्चित कलशों से ऋषभदेव का महाभिषेक करते हैं। चारों ओर पुष्पवृष्टि होती है। अन्य त्रेसठ इन्द्र भी अभिषेक करते हैं । शकेन्द्र चारों दिशाओं में चार श्वेत वृषभों की विकुर्वणा कर उनके शृंगों से आठ जल-धाराएँ बहाकर अभिषेक करते हैं। उसके पश्चात् शक प्रभु को पुनः माता के पास लाता है और माता के सिरहाने क्षोमयुगल तथा कुण्डल युगल रखकर प्रभु के दूसरे रूप को माता के पास से हटाकर माता की निद्रा का संहरण करता है। कुबेर आदि को आदेश देकर विराट निधि कुलकर नाभि के महल में प्रस्थापित करवाते हैं। सभी को यह आदेश देते हैं-भगवान् ऋषभ का और उनकी माता का यदि कोई अशुभ चिन्तवन करेगा तो उसे कठोर दण्ड दिया जायेगा। वहाँ से सभी इन्द्र नन्दीश्वर द्वीप जाकर अष्टाह्निका महोत्सव मनाते हैं। नाभि कुलकर ने भी ऋषभ का जन्मोत्सव मनाया। ऋषभदेव व तथागत बुद्ध-जन्म : तुलनात्मक अध्ययन जैन आगम साहित्य में जिस प्रकार तीर्थंकर के जन्मोत्सव का वर्णन है, उसी तरह बौद्ध परम्परा में भी तथागत बुद्ध के जन्मोत्सव का वर्णन मिलता है। तथागत बुद्ध की माता महामाया लुम्बिनी वन में पहुँचती हैं, शाल के नीचे पहुँचते ही उसने शाखा को पकड़ना चाहा, शाल शाखा उसी क्षण महामाया के हाथ के समीप आ गई। उसने उसको पकड़ लिया, शाखा हाथ में लिए गर्भ उत्थान हो गया। उसी समय चारों शुद्ध चित्त महाब्रह्मा सोने का जाल हाथ में लिए वहाँ पहुँचे । बोधिसत्व को उस जाल में लेकर माता के सम्मुख रखा और बोले-तुमने महाप्रतापी पुत्र को १. धम्मकहाणुओगे, पढम खंधे पृ०६ से १६ तक । २. आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन पृ० १५४-१५६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003190
Book TitleJain Katha Sahitya ki Vikas Yatra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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