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जैन कथा साहित्य की विकास यात्रा
लिए हुए, पश्चिम दिशा के रुचक पर्वत पर रहने वाली "इला देवी" आदि दिककुमारियाँ पंखे लिए हुए, उत्तर रुचक पर्वत पर रहने वाली "अलम्बुषा " आदि दिक्कुमारियाँ चामर लिए हुए मंगल गीत गाती हुईं मरुदेवी के सामने खड़ी हो गईं। विदिशा के रुचक पर्वत पर रहने वाली चित्रा, चित्रकनका, सतेरा और सुदामिनी चारों दिशाओं में प्रज्वलित दीपक लिए हुए खड़ी होती हैं । उसी प्रकार मध्य रुचक पर्वत पर रहने वाली रूपा, रूपांशा, सुरूपा और रूपकावती ये चारों महत्तरिका दिशाकुमारियाँ नाभि-नाल को काटती हैं और उसे गड्ढे में गाड़ देती हैं । रत्नों से उस गड्ढे को भरकर उस पर पीठिका निर्माण करती हैं । पूर्व, उत्तर व दक्षिण इन तीन दिशाओं में तीन कदली-घर और उसमें एक-एक चतुःसाल और उसके मध्य भाग में सिंहासन बनाती हैं । मध्य रुचक पर्वत पर रहने वाली "रूपा" आदि दिक्कुमारियाँ दक्षिण दिशा
कदलीगृह में माता मरुदेवी को ऋषभ के साथ सिंहासन पर लाकर बिठाती हैं । शतपाक, सहस्रपाक तैल का मर्दन करती हैं और सुगन्धित द्रव्यों से पीठी करती हैं । वहाँ से वे उन्हें पूर्व दिशा के कदली गृह में ले जाती हैं । गंधोदक, पुष्पोदक और शुद्धोदक से स्नान कराती हैं । वहाँ से उत्तर दिशा के कदलीगृह के सिंहासन पर बिठाकर गोशीर्ष चन्दन से हवन और भूतिकर्म निष्पन्न कर रक्षा पोटली बाँधती है और मणि रत्नों से कर्णमूल के पास शब्द करती हुई चिरायु होने का आशीर्वाद देती हैं । वहाँ से माता मरुदेवी के साथ भगवान ऋषभ को जन्म गृह में लाती हैं और शय्या पर बिठाकर मंगल गीत गाती हैं ।
उसके पश्चात् आभियोगिक देवों के साथ सौधर्मेन्द्र आता है और माता मरुदेवी को नमस्कार कर उन्हें अवस्वापिनी निद्रा देता है । ऋषभ का दूसरा रूप बनाकर माता के पास रखता है तथा स्वयं वैक्रिय शक्ति से अपने पाँच रूप बनाता है। एक रूप से भगवान् ऋषभ को उठाता है, दूसरे रूप से छत्र धारण करता है और दो रूप इधर-उधर दोनों पार्श्व में चामर बजते हैं तथा पाँचवाँ शक्र रूप हाथ में वज्र लिए हुए आगे चलता है । इस प्रकार से देवगण दिव्य वाद्य-ध्वनियों से वातावरण को मुखरित करते हुए द्रुत गति से मेरु पर्वत के पण्डक वन में पहुँचते हैं उन्हें अभिषेक सिंहासन पर भगवान् को बिठाते हैं। चौंसठ इन्द्र भगवान् की पर्युपासना करने लगे ।
अच्युतेन्द्र ने आभियोगिक देवों को आदेश दिया -- महार्घ्य महाभिषेक के योग्य एक हजार आठ स्वर्णकलश रजतमय, मणिमय, स्वर्ण और रूप्य
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