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________________ ७६ जैन कथा साहित्य की विकास यात्रा यौगलिक काल में मानव पशुओं की भाँति नग्न नहीं रहता था, वह अपनी लज्जा-निवारण करने के लिए वृक्षों की छाल आदि का भी उपयोग करता था । जीवाभिगम' में वर्णन है कि 'अनग्न' नामक वृक्ष से क्षौम, कम्बल, दुकूल, कौशेयक, चीनांशुक, श्लक्ष्ण, कल्याणक, आदि विविध प्रकार के वस्त्र यौगलिकों को प्राप्त होते थे। “यः जना नग्नाः न भवन्तीति अनग्नकाः” इस व्युत्पत्ति से यह स्पष्ट हो जाता है कि वृक्षों के वस्त्र (छाल) पहनने के काम में आते थे । जीवाभिगम के टीकाकार ने लिखा है कि और भी अनेक वस्त्रों के नाम हैं-'शेषं सम्प्रदायादवसातव्यं, तदन्तरेण सम्यक् पाठशुद्ध रपि कर्तृ मशक्तत्वात्' । कितने ही चिन्तकों का यह अभिमत है कि यौगलिक काल में मानव वस्त्र नहीं पहनता था। धीरे-धीरे युग के परिवर्तन से वस्त्र पहनना प्रारम्भ हुआ। वस्त्रसभ्यता की निशानी है, यह सम्भव है। उस युग में मानवों की इच्छाएँ इतनी अल्प थीं कि वह आवश्यकताओं की पूर्ति सहज रूप से कर लेता था। जहाँ तृष्णा की आग प्रज्वलित होती है, वहाँ नित नई इच्छाएँ उदबुद्ध होती हैं और वह उसकी पूति में संलग्न रहता है। यही उसके दुःख का कारण है, जबकि वहाँ पर सुख का साम्राज्य था । कल्पवृक्षों को ही इस्लाम धर्म में 'तोबे' कहा गया है और क्रिश्चियन धर्म में उसे 'स्वर्ग का वृक्ष' माना है । पैरु देश में आज भी ऐसे वक्ष हैं जो हवा में से पानी तत्व को खींचते रहते हैं, और गर्मी के दिनों में उन वृक्षों में से स्वतः पानी झरने लगता है। कितने ही वृक्षों के फूल आज भी लोग आभूषणों के रूप में धारण करते हैं, कितने ही फल भूख और प्यास को शांत करते हैं, कितने ही वृक्षों की छाल आज भी वस्त्र के रूप में उपयोग की जाती है। इस तरह वृक्ष मानवों के लिए सदा उपयोगी रहा है। कल्पवृक्ष कोई काल्पनिक चक्ष नहीं था, क्योंकि आज वे वृक्ष नहीं हैं पर कुछ उनकी तुलना वाले वृक्ष आज भी हैं। इससे यह अनुमान हो सकता है कि किसी युग में इस प्रकार के वृक्ष रहे होंगे। १. जीवाभिगम, पा० ३५०. २. भरतमुक्ति : एक अध्ययन, ले० महेन्द्र मुनि, पृ००, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003190
Book TitleJain Katha Sahitya ki Vikas Yatra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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