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जैन आगमों की कथाएँ
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में ऐसे वृक्ष हैं जो 'मिल्क ट्री' 'ब्रड ट्री' और 'लाइट ट्री' आदि नामों से पुकारे जाते हैं । इन वृक्षों के फल, दूध, रोटी, और प्रकाश से व्यक्ति लाभान्वित होते हैं।
चौगलिक काल के मानवों का जीवन प्रकृति पर अवलम्बित था । आज के युग में सोने-चाँदी, हीरे-पन्ने आदि बहुमूल्य रत्नों से विविध प्रकार के आभूषण बनते हैं, पर उस युग में मानव वृक्षों के ही फल-पत्तों से तथा फूलों से आभूषण तैयार करता था। 'अभिज्ञान शाकुन्तल'1 नाटक में शकुन्तला के आभूषणों का उल्लेख है। ऋषि कण्व ने आभूषणों को लाने का आदेश गौतमी को दिया । गौतमी जब आभूषण लेकर उपस्थित हुई तो उन्होंने पूछा-कहाँ से लाई हो ? उसने उत्तर दिया-मैंने ये विविध वक्षों से प्राप्त किये हैं । 'मण्यंग' नामक वृक्ष से विविध प्रकार के हार, अद्ध हार, मुकुट, कुण्डल, सूत्र, एकावली, चूड़ामणि, तिलक, कनकावली, हस्तमालक, केयूर, वलय, अंगूठी, मेखला, घण्टिका, नूपुर, आदि विविध प्रकार के आभूषण प्राप्त होते थे । अथवा उन वृक्षों के फूल और फलों से सहज रूप में आभूषण बन जाते होंगे, उन आभूषणों की कान्ति स्वर्ण, मणि और रत्नों से भी अधिक थी।
__ योगलिक काल में मानव समूह के रूप में नहीं रहता था । न उन्हें परिवार की चिन्ता थी और न समाज की ही । वे युगल रूप में पैदा होते और युगल रूप में जीवन की सांध्य बेला तक साथ रहते पर उनके पास मकान निर्माण की कला नहीं थी। वे 'गृहाकार' वृक्षों में कारण धूप, छाया आदि से बचे रहते थे, वे वृक्ष भव्य भवनों का कार्य करते थे । वे अट्टालिका, गोपुर, प्रासाद, एकसाल, द्विसाल, चतुःसाल, गर्भगृह, मोहनगृह, वल्लभी गृह, आपण, नियूह, अयवबुरक, चन्द्रशाला आदि विविध प्रकार के मकान की तरह स्वतः निर्मित हो जाते थे। उन मकानों में ऊपर चढ़ने के लिए सीढ़ियाँ भी होती थीं और द्वार भी होते थे ।
१. अभिज्ञान शाकुन्तल, अंक ४, पृ० ८६-६०. २. जिसमें एक आँगन के चारों ओर चार कमरे या दालान हों, जिसे हिन्दी में
'चौसल्ला' कहते हैं। गुप्त काल में इसे 'संजवन' कहते थे । देखिए-हर्ष
चरित्र : ए : साँस्कृतिक अध्ययन, पृ०६२- ले० वासुदेवशरण अग्रवाल । ३. जहा से अणगाइग खोय तणुय"........ - जीवाभिगम, पा० ३५०. ४. जहा से पागार हालय चरियदार गोपुर..........
-जीवाभिगम, पा० ३४६.
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