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७४ जैन कथा साहित्य की विकास यात्रा
तत, वितत, घन, सुषिर प्रभृति विविध प्रकार के स्वर प्रस्फुटित होते थे । यौगलिक मानव इन वृक्षों से मनोरंजन करता था ।
प्राचीन युग में जब विद्य ुत शक्ति का विकास नहीं हुआ था, तब मशालों से या दीपकों से मानव अन्धकार में ज्योति प्राप्त करता था । यौगलिक काल में अग्नि का अभाव था । इसलिए उस समय वृक्षों से ही निर्मल प्रकाश प्राप्त होता था । वे वृक्ष निर्धू म अग्नि की तरह चमकते थे । उन वृक्षों का प्रकाश सुवर्ण, केक, अशोक और जपा वृक्षों के विकसित फूलों की तरह और मणि रत्नों की किरणों की भाँति दैदीप्यमान था । वह जात्य हिंगुल के रंग के सदृश सुन्दर 'ज्योतिष्क' नामक वृक्षों का समूह कहलाता था । अग्नि की तरह प्रकाशमान होने से अन्धकार का अभाव रहता था । शीतकाल में भी वे वृक्ष यौगलिक मानवों को शान्ति प्रदान करते थे । वे वृक्ष 'दीपांग' और 'ज्योतिरंग' के रूप में विश्रुत थे ।
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यौगलिक काल के मानव कृत्रिम कलाओं से परिचित नहीं थे । पर उस समय कुछ वृक्ष ऐसे थे वे जो चित्रमय थे । वे चित्र बड़े ही दर्शनीय, रम्य और विविध वर्ण वाले थे । वे वृक्ष 'चित्रांग' के नाम से जाने जाते थे 12
संसार का कोई भी प्राणी ऐसा नहीं जो आहार के अभाव में दीर्घकाल तक जीवित रह सके । आहार जीवन की अनिवार्य आवश्यकता है । यौगलिक काल में मानव आजकल की तरह भोजन का निर्माण नहीं करता था । उस युग में 'चित्र रसांग' नामक ऐसे वृक्ष थे, जिन पर विविध प्रकार के फल लगते थे । जैसे - चक्रवर्ती सम्राट के लिए सुगन्धित श्र ेष्ठतम कल्मा सालि चावलों से खीर बनाते हैं, विविध पदार्थों से मोदक तैयार करते हैं, उसे खाकर प्रत्येक व्यक्ति तृप्ति का अनुभव करते हैं, वैसे ही अठारह प्रकार के विशिष्ट भोजन गुणों से युक्त वे फल मानव को पूर्ण तृप्ति प्रदान करते
थे ।
अनुसन्धित्सुओं का यह मन्तव्य है कि आधुनिक युग में भी अमेरिका
१. जहा से .... 'अइरुग्ग सरय सूर मण्डल' २. जहा से पेच्छा घरे विचित्ते....
३. जहा से सुगन्धवर कलम सालि तन्दुल
४. भरतमुक्ति : एक अध्ययन, पृ० ४
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- जीवा० पा० ३४८.
- जीवा० पा० ३४८.
-- जीवाभिगम, पा० ३४८.
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