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जैन आगमों की कथाएँ ७३ (७) चित्र रसांग-विविध प्रकार के भोजन देने वाले । (८) मण्यंग-मणि, रत्न आदि आभूषण देने वाले । (९) गृहाकार-घर के समान स्थान देने वाले । (१०) अनरन-वस्त्रादि की पूर्ति करने वाले ।
ये कल्पवृक्ष मानव की आवश्यकताओं की पूर्ति करते थे । 'मत्तांगक' वृक्ष से चन्द्रप्रभा, मनःशीला, सिन्धुवारुणी आदि विशेष प्रकार के पौष्टिक पदार्थों से युक्त वह पेय उत्पन्न होता था, जिसे पीकर यौगलिकों में अभिनव स्फूर्ति का संचार होता था। समय पर उनसे स्वतः स्राव होता था। जिससे यौगलिक पूर्ण स्वस्थ रहते थे। वे वृक्ष उस समय सहज रूप में पैदा होते थे । उनका निर्माता कोई ईश्वर आदि नहीं था, वे वक्ष स्वतः ही समय पर पकते थे और समय पर ही उनमें से स्वतः स्राव झरने लगता, उसका उपयोग कर मानव पूर्ण स्वतन्त्रता प्राप्त करते थे।
___ "भत्तांग' नामक वृक्ष से सहज रूप में उन्हें पात्र मिल जाते थे । आज जिस प्रकार के पात्रों का प्रचलन है, उस प्रकार के पात्र यौगलिक काल में नहीं थे । भत्तांग नामक वृक्ष के पत्र और शाखाएँ बर्तनाकार होती थीं अथवा उनके पत्रों को सहज रूप से पात्र का आकार दिया जा सकता था । जीवाभिगम सूत्र में उल्लेख है कि वे वृक्ष घट, कलश, करकरी (भाजन पीतल का). पादकांचनिका (पैरों को प्रक्षालन करने वाली स्वर्ण पात्री), उदक (पानी लेने का पात्र), भगार (लोटा), सरक (बाँस का पात्र) तथा मणिरत्नों की रेखाओं से सचित तथा विविध प्रकार के पत्र और फूलों के रूप में पात्र प्रदान करते थे।
जब मानव कार्य करते हए थक जाता है, तब वह मनोरंजन की सामग्री जुटाता है। नत्य, वाद्य आदि मनोरंजन के प्रमुख साधन है। प्रागऐतिहासिक काल के मनोरंजन के लिए वादित्र का मुख्य स्थान रहा है, वे वादित्र कृत्रिम नहीं किन्तु स्वतः निर्मित थे। उन वादित्रों में मृदंग, पणव, दर्दरक, करटी, डिमडिम, ढक्का, मुरज, शंखिका, विपंची, महत्ती, तलताल, कंसताल प्रभुति वाद्य मुख्य थे । 'तूर्यांग' नामक वृक्ष समूह से स्वतः ही
१. देखिए -- (क) जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति सूत्र, २० पृ. ६६
(ख) पन्नवणा ३६४ २. घड कलस कडग कक्करी........
-जीवाभि० पा० ३४७.
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