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जैन कथा साहित्य की विकास यात्रा
कितने ही लोगों में यह भ्रम है कि एक ही प्रकार का वृक्ष सभी आवश्यकताओं की पूर्ति करता था, जिस व्यक्ति को जिस वस्तु की आवश्य - कता होती उस वृक्ष के नीचे पहुँच जाता और इच्छित वस्तु को प्राप्त कर आह्लादित होता । कितने ही चिन्तकों का यह भी अभिमत है कि इन वृक्षों के अधिष्ठाता देव विशेष थे, जो उनकी इच्छाओं की पूर्ति करते थे, पर यह कथन भी युक्तियुक्त नहीं है। क्योंकि स्थानांग सूत्र के सातवें स्थान में सात प्रकार के कल्पवृक्षों का उल्लेख है। तो स्थानांग' के दसवें स्थान में दस प्रकार के कल्पवृक्षों का वर्णन है। समवायांग और प्रवचनसारोद्धार में भी दम प्रकार के कल्पवृक्ष बताये हैं। ये सभी वृक्ष अपनी-अपनी अपेक्षाओं की पूर्ति करते थे। इससे यह स्पष्ट है कि सभी वृक्षों का अपनाअपना स्वतन्त्र स्थान था और उस सीमा तक अपना कार्य करते थे।
स्थानांग में जो सात प्रकार के कल्पवृक्ष बताये गये हैं, वे 'विमलवाहन' कुलकर के समय के हैं । उन वृक्षों में दीप, ज्योतिष्क और त्रुटितांग वृक्षों के नाम नहीं आये हैं। सम्भव है, उस समय या उस क्षेत्र में वाद्य और प्रकाश देने वाले वृक्षों का अभाव होगा। जीवाभिगम' सूत्र में ये कल्पवृक्ष एकोरुक द्वीप में बताये गये हैं। इन दस प्रकार के कल्पवृक्षों के नाम इस प्रकार हैं :
(१) मत्तांगक-स्वाद पेय की पूर्ति करने वाले । (२) भृत्तांग-अनेक प्रकार के भाजनों की पूर्ति करने वाले । (३) तूर्याग-वाद्यों की पूर्ति करने वाले । (४) दीपांग-सूर्य के अभाव में दीपक के समान प्रकाश देने वाले । (५) ज्योतिरंग-सूर्य और चन्द्र के समान प्रकाश देने वाले । (६) चित्रांग-विचित्र पुष्प (माला) देने शले ।
१. विमल वाहणे णं कुलगरे सत्तविधा रुक्खा भुवभोगत्ताते हव्वमाच्छिसु तं
जहामातंगता य भिंगा त्तित्तगा चेव चित्तरसा होति । मणियंगा य अणियणा सत्तमग्गा कप्परुक्खा य ।।
___-- ठाणांग, स्थान ७, सूत्र ६८८. २. स्थानांग स्थान १०.
४. समवायांग, समवाय १०. ३. प्रवचनसारोद्धार, द्वार १२१. ५. जीवाभिगम पा० ३४७. Jain Education International For Private & Personal Use Only
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