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________________ जैन आगमों की कथाए ७१ ४. स्वयंप्रभ ५. विमलघोष ६. सुघोष और ७. महाघोष । दोनों ही आगमों के कुलकरों के नामों में बिल्कुल ही भेद है। समवायांग में अतीत अवसर्पिणी के दस कुलकरों के नाम इस प्रकार बताये हैं : १. स्वयंजल २. शतायु ३. अजितसेन ४. अनन्तसेन ५. कार्यसेन ६. भीमसेन ७. महाभीमसेन ८. दृढ़रथ ६. दशरथ और १०. शतरथ । इन नामों के साथ यदि हम 'अजितसेन' और 'कार्यसेन' ये दो नाम हटा दें तो अन्य सभी के नाम एक सदृश हैं । हमारी दृष्टि से स्थानांग में उत्सर्पिणी के स्थान पर अवसर्पिणी पाठ होता तो अधिक उपयुक्त था । क्योंकि स्थानांग में सातवें स्थान में उत्सर्पिणी के सात कुलकर बताये हैं, उनके नाम इस प्रकार हैं-१. मित्रवाहन २. सुभूम ३. सुप्रभ ४. स्वयंप्रभ ५. दत्त ६. सूक्ष्म ७. सूबन्धु । वे दस कुलकरों के जो नाम पहले बताये गये हैं, उनसे पृथक् हैं। और यही सातों नाम समवायांग में भी मिलते हैं। इसलिये ये नाम अतीत अवसर्पिणी के गिनने चाहिए। समवायांग के साथ जो दो नामों में भेद है वह हमारी दृष्टि से वाचना भेद हो सकता है। युगलिक सभ्यता का मूलाधार : कल्पवृक्ष प्रस्तुत विभाग में सात प्रकार के वृक्षों का भी उल्लेख है। मानव का वृक्षों के साथ अत्यन्त मधुर सम्बन्ध रहा है, उसकी सारी अपेक्षायें वृक्षों से पूर्ण होती थीं, इसलिए वह खाद तथा पानी आदि से उनका संपोषण भी करता रहा है। कवि कुलगुरु कालिदास ने 'अभिज्ञान शाकुन्तल' में शकुन्तला का वृक्षों पर सहोदर की भाँति स्नेह बताया है ।1। योगलिक युग में मानव की इच्छायें अल्प थीं । उसकी भूख-प्यास का शमन, वस्त्र-पात्र, मकान आदि सभी की पूर्ति वृक्षों से होती थी। उन वृक्षों को जैन आगम साहित्य में 'कल्पवृक्ष' कहा गया है। यों कल्प शब्द अनेकार्थक है । सामर्थ्य, वर्णना, छेदन करना, औषम्य और अधिवास प्रभुति विविध अर्थ कल्प शब्द के हैं, पर यहाँ समर्थ अर्थ का प्रयोग उचित लगता है । जो वक्ष विविध प्रकार के फल प्रदान करने में समर्थ हों, वह 'कल्पवृक्ष' हैं । नालन्दा हिन्दी शब्दकोष में स्वर्ग के वृक्ष का नाम 'कल्पतरु' लिखा है । यह सम्भव है, वह कल्पवृक्ष हो। यह वक्ष देवलोक का वृक्ष माना गया है। कल्पना के अनुसार फल प्रदान करने के कारण यह वृक्ष 'कल्पवृक्ष' के नाम से विश्र त है। १. अभिज्ञान शाकुन्तल, अध्याय १, पृ० १३. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003190
Book TitleJain Katha Sahitya ki Vikas Yatra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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