________________
६८ जैन कथा साहित्य की विकास यात्रा चिलचिलाती धूप मानवों को नहीं मिलती, जिससे वे ठिठरने लगे । चन्द्राभ ने बताया कि यह शीत और तुषार सूर्य की किरणों से नष्ट होगा। लोगों को शान्ति का अनुभव हुआ।
बारहवें कुलकर 'मरुदेव' के समय आकाश में उमड़-घुमड़ कर घटायें आने लगीं, बिजलियाँ कौंधने लगों और हजार-हजार धारा के रूप में पानी बरसने लगा । कल-कल छल-छल करती हुई नदियाँ प्रवाहित होने लगीं। यह दृश्य देखकर मानव भयभीत हो उठा। मरुदेव ने कहा-अब शीघ्र ही कर्मयुग प्रारम्भ होगा। तुम भयभीत न बनो, नौकाएँ बनाकर नदियों को पार करो। छाता बनाकर वर्षा और गर्मी से अपने आपको बचाओ। सीढ़ियाँ बनाकर पहाड़ों पर चढ़ो। इस प्रकार उपाय बताने के कारण मरुदेव कुलकर कहलाया। __ तेरहवें कुलकर 'प्रसेनजित' के समय जरायु से वेष्टित युगल बालकों को देखकर वे बड़े भयभीत हए । उन्होंने कहा-जरायु हटाओ और बालकों का उचित रूप से पालन करो। इस प्रकार शिक्षा देने के कारण प्रसेनजित कुलकर कहलाया।
___ चौदहवें कलकर 'नाभि' के समय बालकों का नाभिनाल बहुत बड़ा होने लगा । नाभि ने लोगों से कहा-इसे काटा जाये। इस समय तक प्रायः कल्पवक्ष नष्ट हो गये थे। विविध धान्य और मधुर फल जंगलों में उत्पन्न हो रहे थे । नाभि ने उन फलों को और उन धान्यादि को खाने की सलाह दी जिससे यौगलिकों को शान्ति प्राप्त हुई, इसलिए नाभि कुलकर के रूप में विश्र त हुआ।
जन-साधारण में क्रमशः धृष्टता बड़ती जा रही थी। 'माकार नीति' असफल हो गई थी, इसलिए ग्यारहवें से चौदहवें कुलकर तक ‘धिक्कार' नीति का प्रचलन हुआ। इस नीति के अनुसार 'तुझे धिक्कार है, ऐसा कार्य किया' इस प्रकार तिरस्कारसूचक शब्द को सुनकर वे मृत्युदण्ड से अधिक अपने आपको दण्डित समझते थे । इस युग में जघन्य अपराध के लिए खेद, मध्यम अपराध के लिए निषेध और उत्कृष्ट अपराध के लिए तिरस्कार मुख्य दण्ड था।
१. देखिए-जैन धर्म का मौलिक इतिहास, पृ० ८४२ द्वि सं०, आचार्य हस्ती
मलजी महाराज
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org