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________________ जैन आगमों की कथाएँ । ६७ निहारने से उस हाथी को जाति-स्मरण ज्ञान हुआ कि हम दोनों ही पहले भव में पश्चिम महाविदेह क्षेत्र में घनिष्ठ मित्र थे। यह सरल प्रकृति का धनी था, इसलिए यह मानव बना और मैं अत्यन्त मायावी होने से पशुयोनि में उत्पन्न हुआ। उसने अपनी सूड़ से उस युगल दम्पत्ति का आलिंगन किया और उन्हें उठाकर अपनी पीठ पर बिठा लिया । अन्य युगलों ने जब उसे वाहनारूढ़ देखा तो अत्यन्त आश्चर्य हुआ, क्योंकि इसके पूर्व कोई भी व्यक्ति वाहन पर आसीन नहीं हुआ था। उन्होंने सोचा-यह मानव सबसे अधिक शक्तिशाली है, इसलिए उसे अपना मुखिया बनाया और वह कुलकर के रूप में प्रसिद्ध हआ। उज्ज्वल कान्ति युक्त हाथी पर आरूढ़ होने से वह विमलवाहन के नाम से पहचाना जाने लगा। उसका अनुसरण कर अन्य व्यक्तियों ने भी पशुओं को पालतू बनाना प्रारम्भ किया। तिलोयपण्णत्ति के अनुसार आठवें 'चक्षष्मान' कुलकर के समय युगलों ने अपनी सन्तान को देखा । वे सन्तान को देखकर भयभीत हुए। चक्ष ष्मान् ने उन्हें समझाया कि भयभीत होने की आवश्यकता नहीं। यह तुम्हारी सन्तान हैं । वे अपनी सन्तान के मुख देखने लगे और मुह देखते ही परलोकवासी होने लगे। नौवें 'यशस्वी' कुलकर ने अपनी सन्तान का नामकरण-महोत्सव करने की शिक्षा दी, क्योंकि अब सन्तान को देखते ही माता-पिता उस समय ही काल-कवलित नहीं होते थे, इसलिए नाम संस्करण प्रारम्भ हुआ। दशवें कुलकर 'अभिचन्द्र' ने कुलों की सुव्यवस्था के साथ ही बालकों के रुदन को रोकने के लिए उनको खिलाने-पिलाने की विधि बताई। तदनुसार युगल अपने बालकों को विलाने-पिलाने लगे, उनका पालन-पोषण करने लगे । कुछ दिनों तक पालन-पोषण करने के बाद वे युगल-दम्पत्ति सदा के लिए आँखें मूद लेते थे। छठे से दशवें कुलकर तक 'हाकार' और 'माकार' ये दोनों नीतियाँ प्रचलित रहीं। 'हा ! तुमने यह क्या किया, और 'मत करो' ये दोनों शब्द दण्ड प्रहार की तरह मानवों को आघात करने के सदृश प्रतीत होते । ___ग्यारहवें 'चन्द्राभ' कुलकर के समय मौसम में भी परिवर्तन होने लगा । पहले मौसम बड़ा सुहावना था, न अतिशीत था, न अति उष्णता थी और न अति वर्षा ही थी; किन्तु अब प्रकृति में परिवर्तन आ गया था, अतः शीत और ताप में अभिवृद्धि हो गई थी। कुहरे के कारण सूर्य की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003190
Book TitleJain Katha Sahitya ki Vikas Yatra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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