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६२ जैन कथा साहित्य की विकास यात्रा (६४) चौंसठ दिन तक करने के पश्चात् युगल दम्पत्ति का देहावसान हो जाता है।
वतीय आरे में द्वितीय आरे की अपेक्षा अनन्तगुनी पूर्वापेक्षा अपकर्षता हो जाती है। प्रथम आरक में जहाँ मानव की ऊँचाई तीन कोस की थी, वहाँ दूसरे आरे में दो गाउ (कोस) की तो तृतीय आरे में दो हजार धनुष की ऊँचाई रह जाती है । मृत्यु के पूर्व छह मास अवशेष रहने पर एक युगल को जन्म देते हैं और उस युगल का वे उन्यासी (७६) दिन तक पालनपोषण करते हैं । यह समय भोगभूमि के रूप में विश्रु त है। तीसरे आरे के प्रथम और मध्य विभाग तक यह स्थिति चलती है। उन सभी में किसी भी प्रकार का कोई कष्ट नहीं होता।
वृतीय आरे के एक पल्योपम का आठवाँ भाग अवशेष रहता है, उस समय भरतक्षेत्र में कुलकर पैदा होते हैं।
पउमचरियं, महापुराण, हरिवंशपुराण और सिद्धान्त संग्रह में चौदह कुलकरों के नाम मिलते हैं। वे ये हैं-पउमचरियं में :-१. सुमति २. प्रतिश्र ति ३. सीमंकर ४. सीमन्धर ५. क्ष मंकर ६. क्षेमंधर ७. विमलवाहन ८. चक्ष ष्मान् ६. यशस्वी १०. अभिचन्द्र ११. चन्द्राभ १२. प्रसेनजित १३. मरुदेव १४. नाभि । आचार्य जिनसेन ने संख्या की दृष्टि से चौदह कुलकर माने हैं. किन्तु पहले प्रतिश्रु त, दूसरे सन्मति, तीसरे क्षेत्रकृत, चौथे क्षेमंधर,
१. पउमचरियं-३/५०-५५ । २. आद्यः प्रतिश्रुति: प्रोक्तः, द्वितीयः सन्मतिर्मतः ।
तृतीयः क्षमकृन्नाम्ना, चतुर्थः क्ष मधृन्मनुः ।। सीमकृत्पंचमो ज्ञयः, षष्ठः सीमधुदिष्यते । ततो विमलवाहांकश, चक्षुष्मानष्टमो मतः ॥ यशस्वान्नवमस्तस्मान्, नाभिचन्द्रोऽप्यनन्तरः । चन्द्राभोऽस्मात्परं ज्ञयो, मरुदेवस्ततः परम् ।। प्रसेनजित्परं तस्मान्नाभिराजश्चतुर्दशः ।।
-महापुराण, जिनसेनाचार्य, १/३/२२६-२३२, पृ० ६६ ३. हरिवंशपुराण में महापुराण की तरह ही चौदह कुलकरों के नाम उपलब्ध होते हैं।
-हरिवंशपुराण, सर्ग ७, श्लोक १२४-१७० ४. सिद्धान्त संग्रह, पृष्ठ १८ ।
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