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जैन आगमों की कथाएँ
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भरतेश्वर बाहुबलीवृत्ति' प्रभृति परवर्ती साहित्य में भी उसका अनुसरण हुआ है । वे नाम ये हैं - विमलवाहन, चक्षुष्मान, यशोमान, अभिचन्द, प्रसेनजित, मरुदेव और नाभि ।
आदि मानव : कुलकर
जैन दृष्टि से कालचक्र को दो भागों में बाँटा है - १. अवसर्पिणी, और २. उत्सर्पिणी । वे दोनों भी भाग छह-छह भागों में विभक्त किये गये हैं, जिसे जैन पारिभाषिक शब्दों में 'आरा' कहा गया है । अवसर्पिणी काल में प्रत्येक वस्तु में वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श सभी दृष्टियों से क्षीणता होती जाती है और उत्सर्पिणी काल में वर्ण, गन्ध, रस तथा स्पर्श की दृष्टि से प्रतिपल - प्रतिक्षण उत्कर्ष होता है । अवसर्पिणी काल के छह आरे इस प्रकार हैं - १. सुषमा - सुषम, २. सुषम, ३. सुषमा-दुषम, ४. दुषमा - सुषम, ५. दुषम, ६. दुषमा - दुषम । उत्सर्पिणी में उन्हीं का व्युत्क्रम होता है ।
अवसर्पिणी काल के प्रथम आरे में सुख का साम्राज्य होता है । इस काल के मानव का शरीर वज्रऋषभनाराच संहनन और समचतुरस्र संस्थान युक्त होता है । वे सामाजिक, राजकीय और आर्थिक बन्धनों से मुक्त होते हैं । वे स्वयं अपने आप के राजा होते हैं और उन्हें किसी भी प्रकार की चिन्ता नहीं होती है । वे दिव्य रूप - सम्पन्न, सौम्य, मृदुभाषी, अल्पपरिग्रही, शान्त, सरल, क्रोध - मान-मद, मोह, मात्सर्य आदि दुर्गुणों की अल्पता वाले होते हैं । उस समय घोड़े गधे, बैल आदि विविध प्रकार के पशु होने पर भी वे उनका उपयोग नहीं करते हैं ।
उन मानवों के शरीर में से कमल के समान और कस्तूरी के समान सुगन्ध आती है । वे उत्कट साहस के धनी तथा सहज- शान्त स्वभाव वाले होते हैं । छह मास अवशेष रहने पर युगलिनी पुत्र और पुत्री युगल को जन्म देती, उन-पचासवें (४९) दिन तक प्रतिपालना करने के पश्चात् छींक और उबासी आने पर युगल-दम्पत्ति सदा के लिए आँखें लेते हैं ।
द्वितीय आरे में प्रथम आरक की अपेक्षा वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श में अनन्तगुनी हीनता हो जाती है। मानव की आयु तीन पत्योपम से कम होकर इस आरक में दो पल्योपम की रह जाती है । पुत्र-पुत्री का पालन
१. भरतेश्वर बाहुबली वृत्ति |
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