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जैन कथा साहित्य की विकास यात्रा
धर्म-कथा में जीवों के समय-समय पर उबुद्ध विविध परिणामभावों को उद्घाटित करने वाले जीवन प्रसंग, तथा धर्म, शील, संयम, तप आदि जीवन को उजागर करने वाली घटनाओं का अंकन होता है । उद्योतन सूरि ने आक्षेपणी, विक्षेपणी, संवेदनी, निर्वेदनी कथाओं के चारों प्रकारों को धर्म - कथा के अन्तर्गत लिया है ।
कथा साहित्य में धर्म-कथा जीवन को आमूलचूल परिवर्तन करने वाली श्रेष्ठतम कथा है । इसलिए आगम - साहित्य में आये हुए धर्म - कथाओं के विविध प्रसंग प्रस्तुत ग्रन्थ में पहली बार संकलित आकलित किये गये हैं। हम अगली पंक्तियों में तुलनात्मक व समीक्षात्मक दृष्टि से चिन्तन प्रस्तुत करेंगे ।
कुलकर : एक विश्लेषण
सुदूर अतीत में भगवान् ऋषभदेव से पूर्व यौगलिक व्यवस्था चल रही थी । उस व्यवस्था में न कुल था, न वर्ग था, और न जाति ही थी । उस समय एक युगल ही सब कुछ होता था । वह युगल सहज, शान्त और निर्दोष जीवन जीने वाला था । काल के परिवर्तन के साथ व्यवस्था में परिवर्तन होने से जीवन अस्त-व्यस्त होने लगा, तब कुल व्यवस्था का विकास हुआ। प्रस्तुत व्यवस्था में लोग कुल के रूप में संगठित होकर रहने लगे । प्रत्येक कुल का एक मुखिया होता था । वह कुलकर कहलाता था समवायांग', स्थानांग' और भगवती' में सात कुलकर बताये गये हैं । आवश्यक नियुक्ति' और आवश्यकचूर्णि में भी इसी तरह सात कुलकरों के नाम प्राप्त हैं । त्रिषष्टिशलाकापुरुष चरित्र', वसुदेवहिण्डी' और
१. साउग धन कहा णाविह जीव परिणाम-भाव-विभावणत्थं ।
२. समवायांग १५७ ॥
३. स्थानांग ७६७ ।
४. भगवती ५ / ६ / ३ ।
५. आवश्यक नियुक्ति, मलयगिरी वृत्ति १५२/१५४ ।
६. आवश्यकचूणि १२६ ।
७. त्रिषष्टिशलाका पुरुषचरित्र १ / २ / १४२ - २०६ ।
८. वसुदेवहिण्डी, नीलयशा लम्भक खण्ड — संघदास गणिविरचित |
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- कुवलयमाला, ४.२१.
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