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________________ जैन आगमों की कथाएँ ५६ अभीष्ट वस्तु की प्राप्ति हो, वह सकल कथा है ।1 खण्ड-कथा में कथावस्तु बहुत ही छोटी होती है । उल्लाप कथा में समुद्र यात्रा या साहसपूर्वक किये जाने वाले प्रेम का निरूपण होता है। परिहास कथा हास्य-व्यंग्यात्मक कथा होती है। इसमें कथा के अन्य तत्त्वों का प्रायः अभाव होता है । संकीर्ण कथा को दशवकालिक नियुक्ति में मिश्र कथा भी कहा है। जिस कथा में धर्म, अर्थ और काम इन तीन पुरुषार्थों का निरूपण हो, वह संकीर्ण कथा या मिश्र कथा है। आचार्य हरिभद्र ने प्रस्तुत परिभाषा को स्वीकार करते हुए यह लिखा है कि कथा सूत्रों में परस्पर तारतम्य होना चाहिए। उद्योतनसूरि का यह अभिमत है कि संकीर्ण कथा में कथा के सभी गुण विद्यमान होते हैं । यह कथा शृंगार की हुई युवती की भाँति मनोहर होती है। इस कथा में राजा, या विशिष्ट व्यक्तियों के शौर्य, प्रेम, न्याय, ज्ञान, शील, वैराग्य, समुद्री यात्रा में साहस, आकाश गमन, पर्वतीय प्रदेशों की विकट यात्रा, स्वर्ग-नरक का वर्णन, क्रोध-मान-माया-लोभ आदि के दुष्परिणामों का मनोवैज्ञानिक चित्रण प्रमुख रूप से होता है। उद्योतन सुरि ने धर्म-कथा, अर्थ-कथा और काम-कथा ये तीन भेद संकीर्ण कथा के किये हैं। जबकि दशवैकालिक में चारों को कथा के ही भेद माने हैं। अर्थ-कथा वह है, जिसमें मानव की आर्थिक समस्याओं के सम्बन्ध में चिन्तन कर सही समाधान प्रस्तुत किया जाये और वह समाधान, आख्यान, दृष्टान्त के द्वारा व्यक्त करना चाहिए। राजनैतिक कथाओं का समावेश भी इस कथा के अन्तर्गत होता है। काम-कथाओं में केवल रूप-सौन्दर्य का विश्लेषण ही नहीं होता परन्तु यौन समस्याओं का विश्लेषण भी होता है । समाज के परिशोधन में इन कथाओं का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। १. समस्त फलान्तेति वृत्तवर्णना समरादित्यादिवत् सकल कथा । ___- काव्यानुशासन, अध्याय ५, सू०६-१०, पृ० ४६५. २. धम्मो अत्थो कामो उवइस्सइ जन्त सुत्त कव्वेसु । लोगे वेए समये सा उ कहा मीसिया णाम ॥ -दशवैकालिक नियुक्ति, गा० २०६, पृ० २२६. ३. सव्व-कहा गुण-जुत्ता सिंगार-मणोहरा सुरइयंगी। सव्वग्कलागम-सुहया, संकिण्ण-कहत्ति णायव्वा ॥ -कुवलयमाला, ४.१३. ४. समराइच्च कहा, याकोवी, पृ० २ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003190
Book TitleJain Katha Sahitya ki Vikas Yatra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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