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जैन कथा साहित्य की विकास यात्रा
मूलाराधना, स्थानांगवृत्ति, धवला आदि विविध ग्रन्थों में उपलब्ध होती
. दशवकालिक नियुक्ति और मूलाराधना में प्रस्तुत कथा चतुष्टय की परिभाषा एक सदृश है । स्थानांगवृत्ति में आचार्य अभयदेव ने आक्षेपणी की जो व्याख्या की है उसका मूल आधार दशवैकालिकनियुक्ति है । धवला में इसकी परिभाषा कुछ दूसरे प्रकार से मिलती है। उसके अभिमतानुसार विविध प्रकार की एकान्त दृष्टियों और दूसरे समयों की निराकरणपूर्वक शुद्धि कर छह द्रव्यों और नव पदार्थों का प्ररूपण करने वाली कथा आक्षपणी है। इस कथा में केवल तत्त्ववाद की स्थापना प्रधान है। धवलाकार ने एक श्लोक भी उट्टकित किया है, उससे भी इसी अर्थ का समर्थन होता है। दशवकालिक नियुक्ति में एक गाथा है
'आयारे ववहारे पनत्ती चेव दिठिवाए य ।
एसा चउव्विहा खलु कहा उ अवखेवणी होइ ॥" [१६४] आचार्य हरिभद्र ने आचार का अर्थ आचरण, प्रज्ञप्ति का अर्थ समझाना, और दृष्टिवाद का अर्थ सूक्ष्मतत्त्व का प्रतिपादन किया है। चूर्णिकार ने 'आयारे' 'ववहारे' ‘पन्नत्ति' आदि शब्दों को द्वयर्थक नहीं
१. मूलाराधना, ६५६-६५७. २. स्थानांगवृत्ति, ४/२४७. ३. षट्खण्डागम, धवला, खण्ड १, पृ० १०४-१०५ ४. तत्थ अक्खेवणी णाम छहव्व-णव-पयत्थाणं सरूवं दिगंतर-समयांतर णिराकरणं
सुद्धि करेंती परूवेदि। -षटखण्डागम, धवला, भाग १, पृ० १०५ ५. आक्षेपणी तत्त्वविधानभूतां, विक्षेपणी तत्त्वदिगन्तशुद्धिम् । संवेगिनी धर्मफलप्रपंचां, निर्वेगिनी चाह कथां विरागाम् ॥
-षट्खण्डागम, धवला, भाग १, पृ० १०६. आचारो-लोचास्नानादिः, व्यवहारः-कथञ्चिदापन्नदोषव्यपोहाय प्रायश्चित्तलक्षणः, प्रज्ञप्तिश्चैव-संशयापत्रस्य मधुरवचनैः प्रज्ञापना, दृष्टिवादश्च -श्रोत्रपेक्षया सूक्ष्मजीवादि भावकथनम् ।
-दशवकालिक नियुक्ति हरिभद्रीया वृत्ति प० ११० ।
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