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________________ ५४ जैन कथा साहित्य की विकास यात्रा को सरल बनाने हेतु आगम-अध्ययनक्रम को चार अनुयोगों में विभक्त किया। वह क्रम इस प्रकार है : १. चरण-करणानुयोग-कालिक श्रु त, महाकल्प, छेदश्रु त आदि । २. धर्म-कथानुयोग-ऋषिभाषित, उत्तराध्ययन आदि । ३. गणितानुयोग-सूर्यप्रज्ञप्ति आदि । ४. द्रव्यानुयोग-दृष्टिवाद आदि । यह महत्वपूर्ण कार्य दशपुर में वीर निर्वाण ५६२, वि० सं० १२२ के आस-पास सम्पन्न हुआ था । यह वर्गीकरण विषय सादृश्य की दृष्टि से किया गया है । प्रस्तुत वर्गीकरण करने के बावजूद भी यह भेद-रेखा नहीं खींची जा सकती कि अन्य आगमों में अन्य अनुयोगों का वर्णन नहीं है । उदाहरण के रूप में, उत्तराध्ययन सूत्र में धर्मकथा के अतिरिक्त दार्शनिक तथ्य भी पर्याप्त मात्रा में है । भगवती सूत्र तो अनेक विषयों का विराट सागर है। आचारांग आदि में भी अनेक विषयों की चर्चायें हैं । कुछ आगमों को छोड़कर अन्य आगमों में चारों अनुयोगों का सम्मिश्रण है । यह जो वर्गीकरण हुआ है वह स्थूल दृष्टि को लेकर हुआ है । व्याख्या क्रम की दृष्टि से यह वर्गीकरण अपृथक्त्वानुयोग और पृथक्त्वानुयोग के रूप में दो प्रकार का हम यहाँ पर चरणकरणानुयोग, गणितानुयोग और द्रव्यानुयोग के सम्बन्ध में चिन्तन न कर धर्मकथानयोग पर चिन्तन करेंगे क्योंकि यही हमारा यहाँ अभिधेय है । जैन कथा सहित्य विविध विधाओं में लिखा हआ है। बहुत सी कथाएँ अत्यन्त मनोरंजक हैं । लोक कथाएँ, नीति कथायें, दन्त कथाएँ, परी कथाएँ, प्राणी कथाएँ, कल्पित कथाएँ, दृष्टान्त कथाएँ आख्यान आदि विविध कथाएँ हैं। इसलिए विश्व के विश्र त विज्ञों ने उसे विश्व साहित्य की अक्षय निधि माना है । डा० विन्टरनित्स के शब्दों में कहा जाये तो जैन साहित्य में प्राचीन भारतीय कथा साहित्य के अनेक उज्ज्वल रत्न विद्यमान हैं। सुप्रसिद्ध डा० हर्टल ने जैन कथाकारों की प्रशंसा करते हुए लिखा है कि इन विज्ञों ने हमें कितनी ऐसी अनुपम भारतीय कथाओं का परिचय कराया है जो हमें अन्य किसी स्रोत से उपलब्ध नहीं हो पाती थीं। कथा का स्वरूप जैन धर्म के मूर्धन्य मनीषियों ने जन-जन के अन्तर्मानस में धर्म, दर्शन और अध्यात्म के सिद्धान्तों को प्रसारित करने की दृष्टि से कथाओं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003190
Book TitleJain Katha Sahitya ki Vikas Yatra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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