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________________ जैन आगमों की कथाएँ ५३ पर कातिल श्रत को ग्रहण किया है अन्यथा अनुयोगों का कालिक - उत्कालिक आदि सभी में अविभाग था । 1 जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने इस सम्बन्ध में विश्लेषण करते हुए लिखा है - आर्य वज्र तक जब अनुयोग अपृथक् थे तब एक ही सूत्र की चारों अनुयोगों के रूप में व्याख्या होती थी । अनुयोगों का विभाग कर दिया जाय, उनकी पृथक-पृथक छँटनी कर दी जाय तो वहाँ उस सूत्र में चारों अनुयोग व्यवच्छिन्न हो जायेंगे । इस प्रश्न का समाधान करते हुए भाष्यकार ने लिखा है जहाँ किसी एक सूत्र की व्याख्या चारों अनुयोगों में होती थी, वहाँ चारों में से अमुक अनुयोग के आधार पर व्याख्या करने का यहाँ पर अभिप्राय है । आरक्षित से पूर्व अपृथक्त्वानुयोग प्रचलित था, उसमें प्रत्येक सूत्र की व्याख्या चरण - करण, धर्म, गणित और द्रव्य की दृष्टि से की जाती थी । यह व्याख्या पद्धति बहुत ही क्लिष्ट और स्मृति की तीक्ष्णता पर अवलम्बित थी । आर्य रक्षित के १. दुर्बलिका पुष्यमित्र २. फल्गुरक्षित ३. विन्ध्य और ४. गोष्ठामाहिल ये चार प्रमुख शिष्य थे । विन्ध्य मुनि महान प्रतिभासम्पन्न शीघ्रग्राही मनीषा के धनी थे । आर्य रक्षित शिष्य मण्डली को आगम वाचना देते, उसे विन्ध्य मुनि उसी क्षण ग्रहण कर लेते थे । अतः उनके पास अग्रिम अध्ययन के लिए बहुत सा समय अवशिष्ट रहता । उन्होंने आर्य रक्षित से प्रार्थना की- मेरे लिए अध्ययन की पृथक् व्यवस्था करें । आचार्य ने प्रस्तुत महनीय कार्य के लिए महामेधावी दुर्बलिका पुष्यमित्र को नियुक्त किया । अध्यापतरत दुर्बलिका पुष्यमित्र ने कुछ समय के पश्चात् आर्य रक्षित से निवेदन किया-आर्य विन्ध्य को आगम वाचना देने से मेरे पठित पाठ के पुनरावर्तन में बाधा उपस्थित होती है । इस प्रकार की व्यवस्था से मेरी पूर्व ज्ञान की राशि विस्मृत हो जायेगी । आर्य रक्षित ने सोचा -- महामेधावी शिष्य की भी यह स्थिति है तो आगम ज्ञान का सुरक्षित रहना बहुत ही कठिन है । दूरदर्शी आर्य रक्षित ने गम्भीरता से चिन्तन कर जटिल व्यवस्था १. अपुत्ते अणिओगो चत्तारि दुवार भासए एगो । पुहुत्ताणुओग करणे ते अत्थ तओवि वोच्छिन्ना ॥ किं वइरेहिं पुहुत्त कयमह तदणंतरेहिं भणियम्मि । तदनंतरहि तदभिहिय गहिय सुत्तत्थ सारेहि || Jain Education International — विशेषावश्यकभाष्य, गाथा २२८६ – २२८७. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003190
Book TitleJain Katha Sahitya ki Vikas Yatra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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