SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 66
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५० जैन कथा साहित्य की विकास यात्रा को बतायी जायें, जिससे उनका परिष्कार किया जा सके। संघ के बहुश्रुत आचार्यों ने उन गण्डिकाओं का गहराई से अध्ययन किया और उन्होंने उन पर प्रामाणिकता की मुद्रा लगा दी । इससे यह स्पष्ट है— कालकाचार्य जैसे प्रकृष्ट प्रतिभासम्पन्न आचार्य की गण्डिकायें भी संघ द्वारा स्वीकृत होने पर ही मान्य की जाती थीं जिससे गडिकाओं की प्रामाणिकता सिद्ध होती हैं । अनुयोग का अर्थ व्याख्या है । व्याख्येय वस्तु के आधार पर अनुयोग के चार विभाग किये गये हैं-चरण करणानुयोग, धर्मकथानुयोग, गणितानुयोग और द्रव्यानुयोग' । दिगम्बर परम्परा के ग्रन्थ द्रव्यसंग्रह की टीका में, पंचास्तिकाय' में, तत्त्वार्थवृत्ति में इन अनुयोगों के नाम इस प्रकार मिलते हैं - प्रथमानुयोग, चरणानुयोग, करणानुयोग और द्रव्यानुयोग | श्वेताम्बर और दिगम्बर ग्रन्थों में नाम और क्रम में कुछ अन्तर अवश्य है पर भाव सभी का एक-सा है । , श्वेताम्बर दृष्टि से सर्वप्रथम चरणानुयोग है । रत्नकरण्डश्रावकाचार में आचार्य समन्तभद्र ने चरणानुयोग की परिभाषा करते हुए लिखा है - गृहस्थ और मुनियों के चारित्र की उत्पत्ति, वृद्धि और रक्षा के विधान करने वाले अनुयोग को चरणानुयोग कहते हैं । द्रव्यसंग्रह की टीका में लिखा है - उपासकाध्ययन आदि में श्रावक का धर्म और मूलाचार, भगवती आराधना आदि में यति का धर्म जहाँ मुख्यता से कहा गया है, वह चरणानुयोग है ।" बृहद्रव्यसंग्रह अन१. चत्तारिउ अणुओगा, चरणे धम्मगणियाणुओगे य । दवियाऽणुओगे य तहा, जहकम्मं ते महड्डीया || - अभिधान राजेन्द्र कोश प्र० भाग पृ० ३५६ २. प्रथमानुयोगो.......चरणानुयोगो करणानुयोगो द्रव्यानुयोगो इत्युक्त लक्षणानुयोगचतुष्टयरूपे चतुविधं श्रुतज्ञानं ज्ञातव्यम् । ''" - द्रव्यसंग्रह टीका, ४२ / १८२ ३. पंचास्तिकाय, १७३ ४. तत्वार्थवृत्ति, २५४/१५. ५. (क) आवश्यक नियुक्ति ३६३-३७७ (ख) विशेषावश्यकभाष्य २२८४ - २२६५. ६. गृहमेध्यनगाराणां चारित्रोत्पत्ति-वृद्धि-रक्षांगम् । चरणानुयोगसमयं सम्यग्ज्ञानं ७. द्रव्य संग्रह टीका, ४२/१=२/६. विजानाति || Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003190
Book TitleJain Katha Sahitya ki Vikas Yatra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy