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जैन आगमों की कथाएँ ४७ तृतीय वर्गीकरण आर्यरक्षित ने अनुयोगों के आधार पर किया है। उन्होंने सम्पूर्ण आगम-साहित्य को चार अनुयोगों में बाँटा है ।
अनुयोग शब्द पर चिन्तन करते हुए प्राचीन साहित्य में लिखा है'अणु-ओयणमणुयोगो'-अनुयोजन को अनुयोग कहा है । 'अनुयोजन' यहाँ पर जोड़ने व संयुक्त करने के अर्थ में व्यवहृत हुआ है, जिससे एक-दूसरे
को सम्बन्धित किया जा सके । इसी अर्थ को स्पष्ट करते हुए टीकाकार ने लिखा है-जो भगवत् कथन से संयोजित करता है, वह 'अनुयोग' है। अभिधान राजेन्द्र कोष में लिखा है-लघुसूत्र में महान अर्थ का योग करने को 'अनुयोग' कहा है। अनुयोग : एक चिन्तन
___ अनुयोग शब्द 'अनु' और 'योग' के संयोग से निर्मित हुआ है । अनु उपसर्ग है । यह अनुकूल अर्थ वाचक है । सूत्र के साथ अनुकूल, अनुरूप या सुसंगत संयोग अनुयोग है । वृहत्कल्प में लिखा है कि अनु का अर्थ पश्चा
द्भाव या स्तोक है । उस दृष्टि से अर्थ के पश्चात् जायमान या स्तोक सूत्र के साथ जो योग है, वह अनुयोग है । आचार्य मलयगिरि के अनुसार अर्थ के साथ सूत्र की जो अनुकूल योजना की जाती है, उसका नाम अनुयोग है। अथवा सूत्र का अपने अभिधेय में जो योग होता है, वह अनुयोग है । यही बात आचार्य हरिभद्र, आचार्य अभयदेव, आचार्य शान्तिचन्द्र' ने लिखी है।
१. (क) आवश्यक नियुक्ति, ३६३-३७७ ।
(ख) विशेषावश्यकभाष्य, २२८४-२२६५।
(ग) दशवैकालिकनियुक्ति, ३ टी० २. "अणुसूत्रौं महानर्थस्ततो महतोर्थस्याणुनासूत्रण योगो अनुयोगः" ३, अणुणा जोगो अणुजोगो अणु पच्छाभावओ य थेवे य । ___जम्हा पच्छाऽभिहियं सूत्त थोव च तेणाणु ॥ -बृहत्कल्प गा० १६० ४. सूत्रस्यार्थेन सहानुकूलं योजगमनु योगः ।
-आवश्यकनियुक्ति, मलय० वृ० नि० १२७ ५. आवश्यकनियुक्ति हारिभद्रीयावृत्ति १३०. ६. (क) समवायांग अभयदेववृत्ति १४७.
(ख) स्थानांग, ४/१/२६२, पृ० २००. ७. जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति-प्रमेयरत्नमंजूषावृत्ति, पृ० ४-५.
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