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जैन कथा साहित्य की विकास यात्रा
होता हुआ सारवान् अनुयोगों से सहित, व्याकरण विहित, निपातों से रहित, अनिन्द्य और सर्वज्ञ कथित है, वह सूत्र है।1 ___इस सन्दर्भ में यह समझना आवश्यक है कि आगम कहो, शास्त्र कहो या सूत्र कहो, सभी का एक ही प्रयोजन है। वे प्राणियों के अन्तर्मानस को विशुद्ध बनाते हैं। इसलिए आचार्य हरिभद्र ने कहा-जैसे जल वस्त्र की मलिनता का प्रक्षालन करके उसको उज्ज्वल बना देता है वैसे ही शास्त्र भी मानव के अन्तःकरण में स्थित काम, क्रोध आदि कालुष्य का प्रक्षालन करके उसे पवित्र और निर्मल बना देता है। जिससे आत्मा का सम्यक् बोध हो, आत्मा अहिंसा, संयम और तप साधना के द्वारा पवित्रता की ओर गति करे, वह तत्वज्ञान शास्त्र है, आगम है ।
आगम भारतीय साहित्य की मूल्यवान् निधि हैं। डॉ० हरमन जेकोबी, डा० शुबिंग प्रभृति अनेक पाश्चात्य मूर्धन्य मनीषियों ने जैन-आगम साहित्य का तलस्पर्शी अध्ययन कर इस सत्य-तथ्य को स्वीकार किया है कि विश्व को अहिंसा, अपरिग्रह, अनेकान्तवाद के द्वारा सर्वधर्म-समन्वय का पुनीत पाठ पढ़ाने वाला यह श्रेष्ठतम साहित्य है।
आगमों का अनुयोग-वर्गीकरण आगम साहित्य बहुत ही विराट और व्यापक है । समय-समय पर उसके वर्गीकरण किये गये हैं। प्रथम वर्गीकरण पूर्व और अंग के रूप में हुआ। द्वितीय वर्गीकरण अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य के रूप में किया गया ।
१. अप्परगंथ महत्थं बत्तीसा दोसविरहियं जं च ।
लक्खणजुत्तं सुत्तं अछेहि च गुणेहि उववेयं ।। अप्पक्खरमसंदिद्ध च सारवं विस्सओ मुह। अत्थोवमणवज्ज च सुत्त सव्वण्णुभासियं ॥
___-आव० नियुक्ति, ८८०,८८६ । २. मलिनस्य यथात्यन्तं जलं वस्त्रस्य शोधनम् । अन्तःकरणरत्नस्य, तथा शास्त्र विदुर्बुधाः ॥
___-योगबिन्दु, प्रकरण, २/६ । ३. समवायांग-१४/१३६ । ४. नन्दी, सूत्र ४३।
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