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________________ जैन आगमों की कथाएँ ४५ जन-आगमों में सत्य का साक्षात् दर्शन है । जो अखण्ड है, सम्पूर्ण व समग्र मानव चेतना को संस्पर्श करता है । सत्य के साथ शिव का मधुर सम्बन्ध होने से वह सुन्दर ही नहीं, अतिसुन्दर है । वह आर्ष वाणी है। आर्ष का अर्थ तीर्थंकर या ऋषियों की वाणी है। यास्क ने ऋषि की परिभाषा करते हुए लिखा है-'जो सत्य का साक्षात् द्रष्टा है, वह ऋषि है'। प्रत्येक साधक ऋषि नहीं बन सकता, ऋषि वह है जिसने तीक्ष्ण प्रज्ञा, तर्क, शुद्ध ज्ञान से सत्य की स्पष्ट अनुभूति की है। यही कारण है कि वेदों में ऋषि को मन्त्रद्रष्टा कहा है। मंत्रद्रष्टा का अर्थ है-साक्षात् सत्यानुभूति पर आधृत शिवत्व का प्रतिपादन करने वाला सर्वथा मौलिक ज्ञान । वह आत्मा पर आयी हुई विभाव परिणतियों के कालुष्य को दूर कर केवलज्ञान और केवलदर्शन से स्व-स्वरूप को आलोकित करता है। जो यथार्थ सत्य का परिज्ञान करा सकता है, आत्मा का पूर्णतया परिबोध करा सके, जिससे आत्मा पर अनुशासन किया जा सके, वह आगम है। उसे दूसरे शब्दों में शास्त्र और सूत्र भी कह सकते हैं। जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने विशेषावश्यकभाष्य में लिखा है-जिसके द्वारा यथार्थ सत्य रूप ज्ञय का, आत्मा का परिबोध हो एवं आत्मा का अनुशासन किया जा सके, वह शास्त्र है। शास्त्र शब्द शास धातु से निर्मित हुआ है, जिसका अर्थ है-शासन, शिक्षण और उद्बोधन । जिस तत्त्व-ज्ञान से आत्मा अनुशासित हो, उबुद्ध हो, वह शास्त्र है। जिससे आत्मा जागत होकर तप, क्षमा एवं अहिंसा की साधना में प्रवृत्त होती है, वह शास्त्र है। और जो केवल गणधर, प्रत्येकबुद्ध, श्रु तकेवली और अभिन्नदशपूर्वी के द्वारा कहा गया है, वह सूत्र है। दूसरे शब्दों में जो ग्रन्थ प्रमाण से अल्प किन्तु अर्थ की अपेक्षा महान्, बतीस दोषों से रहित, लक्षण तथा आठ गुणों से सम्पन्न १. ऋषिदर्शनात्--निरुक्त, २/११ । २. साक्षात्कृतधर्माणो ऋषयो बभूवुः-निरुक्त, १/२० ३. 'सासिज्जए तेण तहिं वा नेयमायावतो सत्थं'। --विशेषावश्यकभाष्य, गाथा १३८४ ४. मूलाचार, ५/८० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003190
Book TitleJain Katha Sahitya ki Vikas Yatra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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