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हिन्बी जैन कथा और उपाध्यायश्री पुष्कर मुनि जी की जैन कथाएँ ४१
का इस सीरीज में संकलन का प्रयास हुआ है उसका मूलाधार दृष्टिवादगत मूल प्रथमानुयोग अथवा आर्यकालक द्वारा पुनरुद्धरित प्रथमानुयोग है । ' किंतु उस आधार पर निर्मित प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश, गुजराती, राजस्थानी, आदि भाषाओं के अनेकानेक चरित्र ग्रन्थ, काव्य, रास, लावणी, चौपी आदि के अनुशीलन से इन कथाओं का संकलन किया गया है ।
इन कहानियों में जितनी प्रेरणाएँ हैं, सबका शाश्वत महत्त्व है । ऐसा कभी नहीं हो सकता जबकि सत्य, शील, सदाचार, परोपकार आदि चारित्रिक सद्गुण महत्त्वहीन हो जाएँ अथवा सेवा, सहयोग, सहकार आदि समाज को स्थिरता प्रदान करने वाली प्रवृत्तियों के अभाव में समाज और सामाजिक गतिविधियाँ प्रवर्तमान रह सकें । इन कथाओं से समुचित प्रेरणाग्रहण करके अपने वैयक्तिक जीवन को तो सुखमय बनावें ही, साथ ही समाजसुधार में अपनी शक्ति, योग्यता और क्षमता का उपयोग कर सकें । साथ ही वे अपने पारिवारिक जीवन में स्नेह - वात्सल्य की सरिता हा सकें ।
उपसंहार
विश्व के वाङमय में कथा साहित्य अपनी सरसता और सरलता के कारण प्रभावक और लोकप्रिय रहा है । भारतीय साहित्य में भी कथाओं का विशालतम साहित्य एक विशिष्ट निधि है । भारतीय कथा साहित्य में जैन एवं बौद्ध कथा साहित्य अपना विशिष्ट महत्त्व रखते हैं । श्रमण परम्परा ने भारतीय कथा साहित्य की न केवल श्रीवृद्धि की है अपितु उसको एक नई दिशा दी है । जैन कथा साहित्य का तो मूल लक्ष्य ही रहा है कि 'कथा के माध्यम से त्याग, सदाचार, नैतिकता आदि की कोई सत्प्रे - रणा देना ।' आगमों से लेकर पुराण, चरित्र, काव्य, रास एवं लोक कथाओं के रूप में जैनधर्म की हजारों-हजार कथाएँ विख्यात हैं। अधिकतर कथा साहित्य प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश, गुजराती एवं राजस्थानी भाषा में होने के कारण और वह भी पद्यबद्ध होने से बहुसंख्यक पाठक उससे लाभ नहीं उठा सकता। जैन कथा साहित्य की इस अमूल्यनिधि को आज की लोक भाषा - राष्ट्रभाषा हिन्दी के परिवेश में प्रस्तुत करना अत्यन्त आवश्यक है ।
१. जैन कथाएँ, भाग १११, लेखकीय, अध्यात्मयोगी श्री पुष्कर मुनि, सम्पा० उपाचार्य श्री देवेन्द्र मुनि तथा श्रीचन्द सुराना 'सरस', पृष्ठ ३०-३१ |
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