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जैन कथा साहित्य की विकास यात्रा
जैन परम्परागत कथाओं का संग्रह किया और इस क्षीण होते साहित्य का प्रथमानुयोग नाम से पुनरुद्धार किया। इस उल्लेख के प्रमाण वसूदेव हिण्डी आवश्यचूर्णि आवश्यक सूत्र तथा अनुयोगद्वार की हारिभद्रीयावृत्ति और आवश्यकनियुक्ति आदि ग्रन्थों में प्राप्त होते हैं । इन ग्रन्थों में जिस प्रथमानुयोग का संकेत है, वह यही पुनरुद्धरित प्रथमानुयोग है, जिसके पुनरुद्धारकर्ता आर्यकालक हैं। कतिपय विद्वानों ने यह अभिमत भी व्यक्त किया है कि इस कथा साहित्य (दृष्टिवाद अंग के अन्तर्गत पूर्वगत कथा साहित्य) का मूल नाम प्रथमानुयोग ही था किन्तु वह लुप्त हो चुका था । अतः आर्यकालक द्वारा पुनरुद्धरित प्रथमानुयोग से मूल प्रथमानुयोग का भेद दिखाने के लिए समवायांग और नन्दीसूत्र में पूर्वगत प्रथमानुयोग को मूल प्रथमानु योग कहा गया है।
दिगम्बर साहित्य में तो कथा-ग्रन्थों-पुराणों के लिए प्रथमानुयोग शब्द रूढ़ हो गया है, वहाँ, इसी नाम का व्यवहार होता है । प्रथमानुयोग नामकरण के अनेक कारण हो सकते हैं यथा इस साहित्य की विशालता, प्रेरकता आदि । किन्तु सर्वाधिक उचित कारण यह प्रतीत होता है कि बिल्कुल ही निपट अज्ञानी पुरुष, जिसने कभी धर्म का नाम भी न सुना हो, उसे कथाओं द्वारा सहज ही धर्म की ओर रुचिशील बनाया जा सकता है। दिगम्बर परम्परा में इसी हेत को स्वीकार करके सर्वप्रथम सामान्य और यहाँ तक कि अनार्य लोगों को भी धर्मसंस्कार प्रदान करने के लिए प्रथमानुयोग का ही ज्ञान देने तथा कथाओं द्वारा धर्मोपदेश का निर्देश दिया गया है । मैं इस चर्चा में विस्तार से न जाकर इतना ही कहना चाहता है कि अंगशास्त्रों में उल्लेखित कथाओं के अतिरिक्त जिस अन्य विपुल कथा साहित्य
१. तत्थ जाव सुहम्मसामिणा जम्बूनामस्स पढमाणुओगे तित्थयर चक्कवट्टिसार. वंसपरूवणागयं वसुदेवचरियं कहियं ति।
-वसुदेव हिंडी, प्रथम भाग, पृष्ठ २। २. आवश्यकचूणि, भाग १, पृष्ठ १६० । ३. आवश्यक हारिभद्रीया वृत्ति, पृष्ठ १११-११२ । ४. अनुयोगद्वार हारिभद्रीया वृत्ति, पृष्ठ ८० । ५. आवश्यक नियुक्ति गा० ४१२ । ६. विजयवल्लभसूरि स्मारक ग्रन्थ, पृष्ठ ५२, प्रथमानुयोग अने तेना प्रणेता
स्थविर आर्यकालक (मुनि पुण्यविजयजी)
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