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________________ अपभ्रश जैन कथा साहित्य ३३ वर्णन में व्यापकता है। इस कृति की कथा में लोक कथाओं की झलक द्रष्टव्य है। घाहिल की चार संधियों की रचना 'पउमसि रीचरिउ' में पंचाणुव्रत का माहात्म्य बताया गया है। इस रचना को प्रणेता ने धर्मकथा से सम्बोधित किया है। रचना में पदमश्री के पूर्व जन्मों की कथा देकर उसे अनेक विषम परिस्थितियों में भी धर्म में दृढी रहना दिखाया गया है । 2 __ अपभ्रंश जैन कथा साहित्य में श्रीचन्द का महनीय स्थान है। उनका तिरपन संधियों का उपदेश प्रधान कथा संग्रह 'कथाकोश' अपभ्रंश कथा साहित्य में मील का पत्थर सिद्ध होता है। बारहवीं शती के उत्तरार्ध और तेरहवीं के प्रारम्भ के रचयिता श्रीधर की तीन रचनाएँ-सुकुमाल चरि उ, पासणाहचरिउ और भविसयत्तचरिउ भाषा, शैली और कथा की दृष्टि से परम्परा का अनुमोदन करती हैं। देवसेनगणि की अट्ठाइस संधियों की 'सुलोचनाचरिउ' कृति, सिंह की पन्द्रह सन्धियों की ‘पज्जुण्णचरिउ' कृति, हरिभद्र की ‘णेमिणाहचरिउ', जिसमें संगृहीत ‘सनत्कुमारचरित' दृष्टि पथ पर आता है जो कथानक की दृष्टि से पूर्ण स्वतन्त्र रचना प्रतीत होती है तथा धनपाल द्वितीय की 'बाहुबलिचरिउ' आदि रचनाएँ उल्लेखनीय हैं । इसके अतिरिक्त पन्द्रहवीं शती के उत्तरार्ध तथा सोलहवीं शती के पूर्वार्ध के रचनाकार रइधू की कथात्मक रचनाएँ-णसणाहचरिउ, सुकोसलचरिउ, धण्णकुमारचरिउ, सम्मतिनाहचरिउ-महत्वपूर्ण हैं । नरसेन की 'सिरिवालचरिउ', हिरदेव की मयण पराजयचरिउ; यशकीर्ति की चंदप्पहचरिउ, माणिक्यराज की ‘णायकुमारचरिउ और अमरसेनचरिउ' कृतियाँ परम्परा से चली आ रहीं कथाओं पर आधृत हैं सिवाय 'मयणपराजयचरिउ' के, यह प्रतीकात्मक और रूपकात्मक कथाकाव्य है। १. (i) मुनि कनकामर व्यक्तित्व और कृतित्व, डॉ० (श्रीमती) अलका प्रचण्डिया 'दीति', जैन विद्या, मार्च १९८८, पृष्ठ १-७ । (ii) करकण्डुचरिउ का काव्यशास्त्रीय मूल्यांकन, डॉ. महेन्द्रसागर प्रचण्डिया, वही, पृष्ठ २५-३४ । २. अपभ्रंश भाषा का पारिभाषिक कोश, पृष्ठ ५१ । ३. वही ५२-५३ । ४. वही, पृष्ठ ५५ से ५६ तक । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003190
Book TitleJain Katha Sahitya ki Vikas Yatra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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